सोशल मीडिया और भाषा की हबड़-तबड़!

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आजकल खूब तू-तू-मैं-मैं हो रही है। कभी विवेक अग्निहोत्री की कश्मीर फ़ाइल्स को लेकर तो कभी उनके द्वारा भोपाली शब्द को होमो-सेक्सुअल करार दे देने से। कुल मिला कर विवेक अग्निहोत्री बाजी मार ले जाते हैं क्योंकि वे सब पर भारी पड़ जाते हैं। देश की सोशल मीडिया ने भाषा को भ्रष्ट किया है। इसकी एक वजह तो उत्तेजना है कि हमें कुछ न कुछ कह देना है बिना सोचे-विचारे। यानी एक तरह से बस दे मारा। इस भ्रष्ट भाषा के चलते हर भाषा अपनी अस्मिता खोती जा रही है और उसमें लालित्य की बजाय एक तरह की हड़बड़ी आ गई है जिसमें न तो चिंतन है न मनन और न ही संस्कार। यह भाषा नहीं एक तरह की उत्तेजना है जिसे रोडरेज की तरह माउथ रेज कहा जा सकता है। जैसे रोडरेज में हर गाड़ी वाले को आगे निकलने की हड़बड़ी होती है और वह भूल जाता है कि अगला आदमी भी उसी की तरह जाम में फंसा है। इस कारण वह अंटशंट बकने लगता है ठीक उसी तरह सोशल मीडिया में भी आदमी अपनी सारी मर्यादाएं भूलकर ऐसी हड़बड़ी करने लगता है।
जैसे कि रोड रेज होता है ठीक वैसे ही माउथ रेज भी होता है। यानी हमें कुछ न कुछ ठोक देना है भले हम सामने वाले की बात का आशय समझें हो अथवा नहीं। कई बार तो कोई और बोले इसके पहले ही हमें बोल देना है ताकि पता चल सके कि हम नादान नहीं हैं हर विषय पर हमारा भी खासा दखल है। हिंदी में इसके लिए सभ्य शब्द तो कोई नहीं है पर हम अपनी सुविधा के लिए इसे बकलोली कह सकते हैं। यानी बिना कुछ समझे-बूझे बोल देना। अधिकांशत: लड़ाई-झगड़े संबंधों का टूटना इसी बकलोली के कारण होता है। इस बकलोली में पहले अड्डेबाजी हुआ करती थी और अब फेसबुक बाजी या ट्विटरबाजी। भले यहां बोलने की बजाय लिखा जाए लेकिन कुछ भी लिखकर समाज के अंदर फैलाने से जिस तरह की खुशी होती है वह बकलोली से कम तो नहीं। बोलने अथवा लिखने में है बस शब्दों का ही कमाल। पर यह कमाल दिल से ज्यादा निकलता है बजाय दिमाग इस्तेमाल करने के। कुछ भी सुना बस फटाक से दे मारा। चूंकि सोशल मीडिया में बहुत कुछ वैसा सुनने व पढऩे को मिलता है जो आमतौर पर लीक से हटकर होता है इसलिए प्रतिक्रिया में अक्सर नहले पर दहला मार दिया जाता है बगैर यह सोचे कि इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। इस बकलोलबाजी का असर यह होता है कि असहनशीलता बढऩे लगती है और एक के बाद एक यह असहनशीलता बढ़ते हुए समाज मे नासूर की तरह फैल जाती है। पहले जहां अड्डेबाजी में यह बकलोली बस उसी अड्डे तक ही सीमित रहती थी वह सोशल मीडिया के जमाने में वह घर के भीतर तक पहुंच जाती है तथा अर्थ का अनर्थ कर डालती है।
बनारस में एक मोहल्ला है असी। इस असी में असी घाट के नजदीक पप्पू चाय की दूकान है जहां चाय पीते हुए बकलोली करते आज भी युवाओं से लेकर किशोरों तक को देखा जा सकता है। कोई भी विषय हो इस चाय की दूकान में हर समस्या का समाधान है और हर बात का जवाब है। जिस अंदाज में प्रश्न उसी अंदाज में जवाब। कई बार तो लगता है कि भाँग के नशे में आदमी क्या का क्या बोल देता है। भले उस पर अमल कभी न करता हो। ठीक वैसा ही नशा सोशल मीडिया का है। फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स एप ने एक ऐसा हथियार आदमी को मुहैया करा दिया है कि वह अपनी सारी भड़ास इसी माध्यम से व्यक्त करने लगा है। इस भड़ास में जहां ईर्ष्या है, द्वेष है और जलन है तथा सारे के सारे कलुष को बाहर कर देने का यह एक जरिया है। लेकिन बोला हुआ शब्द चाहे कम मार करे पर लिखा हुआ शब्द ज्यादा तीखी मार ही नहीं बल्कि ऐसी मार करता है जिसका असर तात्कालिक ही नहीं सालों तक दीखता है। आप कुछ भी ऐसा लिखिए जो लीक से हटकर हो तो पता चलता है कि तत्काल सोशल मीडिया में प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। कोई आपको देशद्रोही, धर्मद्रोही और जातिद्रोही बताने में लग जाता है तो कोई आपको प्रतिक्रियावादी, रूढि़वादी और लकीर का फकीर बताने में पूरा जोर लगा देता है। मजे की बात कि लिखा हुआ मैटर एक ही लेकिन प्रतिक्रिया भिन्न स्रोतों से अलग-अलग। यानी कोई भी विवेकपूर्ण बात सुनने की या पढ़ने की क्षमता धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही है। हमारे कान बस वही सुनना चाहते हैं जो हमें पसंद हो अथवा जो हमारी रुचि के अनुसार लिखा गया हो। मगर कुछ वर्षों पूर्व तक ऐसा नहीं था। तब काफी कुछ ऐसा लिखा जाता था जो हमारी धारणा के प्रतिकूल होता था मगर उसे पढ़ा जाता था और सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती थी।
हमारे समाज का इस तरह एकरस हो जाना और उसकी विविधता खत्म हो जाने का एक कारण तो समाज में उत्पादक और अनुत्पादक शक्तियों में आया बदलाव है। हर समाज की संस्कृति उसके उत्पादन के साधन और उसकी भौगोलिक स्थिति से प्रभावित होती है। अब भौगोलिक स्थिति तो अचानक बदलती नहीं पर उत्पादन के साधन जरूर तेजी से बदल जाते हैं। आज जिस तरह मध्यवर्ग को अपनी लाइफ स्टाइल और मूल्यों को बनाए रखने के लिए दिन-रात जूझना पड़ता है और परिवार के हर सदस्य को आय का जरिया तलाशने पर जोर देना पड़ता है उस वजह से उसकी आंतरिक खुशी में कमी आई है। अब प्रसन्नता का स्रोत उसे परिवार से नहीं बल्कि मनोरंजन के अन्य साधन तलाशने से मिलती है। भले वह बाहर जाकर खाना खाना हो अथवा मल्टीप्लेक्स में जाकर सिनेमा देखना वह सब जगह एक भीड़ और भागमभाग देखता है जिस वजह से जीवन में एकरसता आने लगती है। सुबह उठकर आफिस के लिए घर से निकलने से लेकर शाम जल्द घर पहुंचने तक वह बस एक ही चीज देखता है भीड़ और भागते हुए लोग। यह भीड़ और भागमभाग उसके जीवन से विवेक छीन लेता है और आदमी बस एक ही तरीके से सोचना शुरू करता है। इसमें उसके अपने वैल्यूज होते हैं और अपनी तरह के तमाम ईगो और टैबू। वह कुछ भी अलग हटकर सोचना बंद कर देता है तथा ऐसी हर बात को खारिज कर देता है जो उसके वैल्यूज और भ्रमों को तोड़ता हो। इससे एक तरह की जड़ता आती है और एक ही समझ विकसित होती है। यह जड़ता और एकरस समझ उसे कुछ भी भिन्न देखते ही प्रतिक्रिया करने पर प्रेरित करता है और नतीजा होता है उत्तेजना।
-शंभूनाथ शुक्ल
(लेखक : हिन्दी दैनिक हिन्ट व निवाण टाइम्स के प्रधान सम्पादक हैं।)

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