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आज 28 अगस्त फ़िराक़ की जयंती है। आज उनके ऐसे पक्ष का ज़िक्र करते हैं जिससे लोग अंजान हैं। फ़िराक़ के पुरखों और उनके परिवार का ज़िक्र करते हैं, फ़िराक़ के पैतृक गाँव और गोरखपुर के उनके जन्मस्थान की सैर पर ले चलते हैं।
जब शेरशाह सूरी का ज़माना था तभी रघुपति सहाय ‘फ़िराक़ ‘के पूर्वज बनवारपार ज़िला गोरखपुर में बसे। फ़िराक़ की कई पीढ़ी पहले के बुज़ुर्ग़ बनवारी लाल सहाय के नाम से ही इस गाँव का नाम बनवारपार मशहूर हुआ। इनके पूर्वजों की ज़मींदारी के बसाए पांच गाँव थे, इसलिए ये लोग पँचगावाँ के कायस्थ कहलाए। इन कायस्थों में ये चलन था कि अपना टाइटिल ये सहाय लगाया करते।
चित्र परिचय : फ़िराक़ के गाँव बनवारपार ज़िला गोरखपुर के फ़िराक़ का पैतृक निवास। (चित्र में नीली जींस में लेखक, उनके बगल में लेखक के मित्र अविनाश यादव, उनके बगल में फ़िराक़ के गाँव के ग्राम प्रधान रहे डॉ.छोटेलाल यादव और साड़ी में फ़िराक़ के पैतृक निवास में बने स्कूल की शिक्षिका हैं।)
फ़िराक़ के परदादा का नाम जानकी प्रसाद सहाय था, रईस ज़मींदार थे और फ़ारसी जानते थे। जब ग़दर हुआ तो उसी दौर में फ़िराक़ के परदादा इंतेकाल फ़रमा गए और फ़िराक़ की परदादी सती हो गईं। वो सती मईया के नाम से आज भी मशहूर हैं और सती होने की जगह उनकी समाधि भी है। फ़िराक़ का जन्म तो गोरखपुर शहर में हुआ लेकिन गोरखपुर ज़िले के अपने इस गाँव बनवारपार से उनका लगाव था। वो यहाँ आते जाते रहते थे। आख़िरी बार सत्तर के दशक में आए और अपनी ज़मीनें बेचकर चले गए, फिर कभी आना नहीं हो पाया। फ़िराक़ के गाँव के कच्चे पैतृक मकान के बरामदे में फ़िराक़ के नाम से एक स्कूल चलता था। अब स्कूल पक्का हो गया है। जब हम दूसरी बार गए तब तक कच्चा था। गाँव में फ़िराक़ के स्मारक के तौर पर उनकी एक आदमक़द मूर्ति है और लाइब्रेरी है। ये दोनों चीज़ें फ़िराक़ के गाँव के प्रधान रहे डॉ.छोटेलाल यादव ने बनवायी हैं। गाँव की चट्टी का नाम भी अब फ़िराक़नगर हो गया है।
बहरहाल, तो फ़िराक़ के पुरखों की बात आगे बढ़ाएं। फ़िराक़ के परदादा जानकी प्रसाद की चार औलादें थीं। श्रवण लाल सहाय, रामआग्रह सहाय, भूपनरायन और लक्ष्मीनरायन सहाय। इनमें से लक्ष्मीनरायन सहाय फ़िराक़ के दादा थे। उनके तीन बेटे थे, हरी प्रसाद सहाय, हरखलाल और गोरख प्रसाद सहाय। फ़िराक़ के पिता का नाम गोरख प्रसाद सहाय था। उनकी तीन पत्नियाँ थीं। तीन पत्नियों से जन्मे उनके बच्चों के नाम थे गनपति सहाय चन्दा सूरज रघुपति सहाय धनपति श्रीपति तारा और यदुपति। इनमें से रघुपति सहाय फ़िराक़ अपने पिता की तीसरी पत्नी से जन्मे थे। तारीख़ थी 28 अगस्त सन् 1896 और दिन के बारह बज रहे थे। जगह गोरखपुर शहर के तुर्कमानपुर मोहल्ले में स्थित लक्ष्मी भवन था।
फ़िराक़ के वालिद गोरखपुर के नामी वकील थे। शायर भी थे। अरबी-फ़ारसी पर पकड़ थी और उस दौर के नामी शायरों में शुमार था। शायरी की दुनिया में ‘इबरत’ के नाम से मशहूर थे। उन्होंने ‘हुस्नेफ़ितरत’ नाम की एक मसनवी लिखी है जो बहुत मशहूर हुई थी। फ़िराक़ की तालीम गोरखपुर के चोटी के आलिम मौलवी सादिक़ साहब की देखरेख में हुई। मौलवी साहब की तालीम ने बचपन में ही फ़िराक़ को शायरी के हुस्न और अरबी-फ़ारसी-उर्दू-संस्कृत से वाकिफ़ करा दिया। फ़िराक़ ने मॉडल स्कूल गोरखपुर में प्रारंभिक स्कूली शिक्षा हासिल की। उसके बाद जुबली स्कूल गोरखपुर के छात्र रहे।
चित्र परिचय : यह तस्वीर फ़िराक़ के गोरखपुर शहर का आवास लक्ष्मी भवन है। जिसके काफ़ी हिस्से ढह रहे हैं और ढह चुके हैं।
लक्ष्मी भवन से फ़िराक़ साहब की बारात निकली जो 21 जून सन् 1914 को मौजा बेलाबाड़ी सहजनवा ज़िला गोरखपुर के विंदेश्वरी प्रसाद के दरवाज़े गई। वहाँ से फ़िराक़ के हमराह किशोरी देवी इसी लक्ष्मी भवन में फ़िराक़ की पत्नी के तौर पर आईं। इसी जगह फ़िराक़ के पुत्र गोविंद और बेटियाँ प्रेमा, प्रभा और पुष्पा भी पले-बढ़े। फ़िराक़ ने इसी लक्ष्मी भवन में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। मोतीलाल नेहरू और मुंशी प्रेमचंद अक्सर यहाँ आते और लक्ष्मी भवन में मेहमान होते।
फ़िराक़ साहब जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे तो यहाँ आना कम हो गया। बहनों-भाइयों की पढ़ाई-लिखाई और शादी के ख़र्चों की वजह से फ़िराक़ ने लक्ष्मी भवन का एक हिस्सा बेच दिया और एक हिस्से को स्कूल को दे दिया। आज भी यहाँ कुछ लोग रहते हैं और सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल भी चलता है। अब लक्ष्मी भवन की दरो-दीवार दरक रही हैं। कई कमरों की छतें टूट गई हैं। काफ़ी बड़ी कोठी का बड़ा हिस्सा जर्जर हो चुका है। कोठी के जिस कमरे में फ़िराक़ का जन्म हुआ था वो भी ढह रहा है। ठीक हिस्से में रिहाइश है और स्कूल चलता है। यहाँ तो साहित्यकारों-कवियों-शायरों से जुड़ी जगहों को संरक्षित करने का कोई चाव सरकारों को नहीं रहा है। फ़िराक़ पश्चिम के किसी देश में जन्मे होते तो इस जगह को वहाँ की सरकारों ने संरक्षित किया होता और लगन से संवारा होता।
रघुपति सहाय ‘फ़िराक़ गोरखपुरी’ जैसा विद्वान सदियों में पैदा होता है। फ़िराक़ शायर भी थे, चिंतक दार्शनिक और अंग्रेज़ी के विद्वान भी थे। आज उनकी जयंती पर शायर-ए-आज़म फ़िराक़ को श्रद्धांजलि।
-डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान