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दुनिया के सभी मज़हबों में भारी मतभेद है, क्योंकि एक धर्म पूरब मुँह करके पूजा करने का विधान करता है, तो दूसरा पश्चिम की ओर। एक सिर पर बाल बढ़ाना चाहता है तो दूसरा दाढ़ी। एक मूँछ रखने के लिए कहता है तो दूसरा मूँछ रखने के लिए। एक कुर्ते का गला दाहिनी तरफ रखने को उतावला होता है तो दूसरा बाईं तरफ। एक खुदा के सिवा कोई दूसरा नाम भी दुनिया में नहीं रहने देना चाहता है, तो दूसरे के देवी देवताओं की संख्या असंख्य है। इसी तरह दुनिया के सभी मज़हबों में भारी मतभेद है। पिछले दो हजार सालों का इतिहास यह बतलाता है कि इन्हीं मतभेदों के कारण मज़हबों ने एक दूसरे के ऊपर कितने जुल्म ढाए हैं? यूनान और रोम की अमर कलाकारों की कृतियों का आज अभाव क्यों दिखता है? इसलिए कि वहाँ एक मज़हब आया, जो ऐसी मूर्तियों के अस्तित्व को ही अपने लिए खतरा समझता था।
ईरान की जातीय कला, साहित्य और संस्कृति को नाम शेष सा क्यों हो जाना पड़ा? क्योंकि उसे एक ऐसे मज़हब से पाला पड़ा, जो इन्सानियत का नाम भी धरती से मिटा देने पर तुला हुआ था। मैक्सिको और पेरू, तुर्किस्तान और अफगानिस्तान, मिश्र और जावा- जहाँ भी देखिये, मज़हबों ने अपने को कला, साहित्य और संस्कृति का दुश्मन साबित किया। यदि पुराने यूनानी धर्म के नाम पर निरपराध ईसाई बच्चे-बूढ़ों, स्त्री-पुरुषों का शेरों से फड़वाना, तलवार के घाट उतारना बड़े पुण्य का काम समझते थे, तो पीछे अधिकार हाथ आने पर ईसाई भी क्या उनसे पीछे रहे?
जर्मनी में इन्सानियत के भीतर लोगों को लाने के लिए कत्लेआम-सा मचा दिया गया। पुराने जर्मन ओक वृक्ष की पूजा करते थे। कहीं ऐसा न हो कि ओक ही उन्हें फिर पथभ्रष्ट न कर दे, इसके लिए बस्तियों के आसपास एक भी ओक वृक्ष रहने नहीं दिया गया। पोप और पेत्रयार्क, इंजील और ईसा के नाम पर प्रतिभाशाली व्यक्तियों के विचार स्वातंत्र्य को आग और लोहे के जरिये दबाते रहे। सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन यहाँ मनुष्यता पनाह माँग रही है।
हिन्दुस्तान की भूमि भी ऐसी धार्मिक मतान्धता का कम शिकार नहीं रही है। क्या यहाँ भी विरोधियों के मुँह और कानों में पिघले रांगे और लाख नहीं भरे गये? एक देश और एक खून मनुष्य को भाई-भाई बनाते हैं। खून का नाता तोड़ना अस्वाभाविक है, लेकिन हम क्या देखते हैं?
जो धर्म भाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार है। जो मज़हब अपने नाम पर भाई का खून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मज़हब पर लानत है। धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है और इसलिए अब मज़हबों के मेल-मिलाप की बातें कभी-कभी सुनने में आती है? अलग-अलग धर्म रखने के कारण क्या लोगों की जाति अलग हो सकती है? क्या खून पानी से गाढ़ा होता है? गरीबों की गरीबी और दरिद्रता के जीवन में कुछ बदला नहीं। धर्म के नाम पर जातीय एकता स्थापित करने की बात आती है, किन्तु वह जातीयता आखिर है कहाँ? लोगों की सामाजिक दुनिया अपनी जाति तक सीमित है। जब एक खास जाति का आदमी बड़े पद पर पहुँचता है, तो नौकरी दिलाने, सिफारिश करने या दूसरे तौर से सबसे पहले अपनी जाति के आदमी को फायदा पहुंचाना चाहता है। जब चौबीसों घण्टे मरने-जीने सब में सम्बन्ध रखने वाले अपनी बिरादरी के लोग हैं, तो किसी की दृष्टि दूर तक भला कैसे जाएगी? यह स्वाभाविक है।
– एम सांकृत्यायन