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बेल का मौसम आ गया है।तस्वीर में जो पेड़ नज़र आ रहा है ये दुर्लभ किस्म के देसी कागज़ी बेल का पेड़ है।इसी पेड़ के बेल आज शाम लग्घी से झोरवाकर लाए और इफ़्तारी में बेल का शर्बत बनवाया।जो बड़े-बड़े बेल मिलते हैं वो विलायती और संकर नस्ल के बेल होते हैं,उसमें साइंसदाँ तरह-तरह की कलाकारी करने लगे हैं,लिहाज़ा बाज़ार के उन संकर बेलों से कुदरती मिठास और बेल की असली सिफ़त ग़ायब रहती है।ये देशी बेल है,काग़ज़ी बेल।कागज़ी बेल भी दो किस्मों की होती है।दोनों की क़लम अलग होती हैं।एक होती है छोटी काग़ज़ी और एक बड़ी काग़ज़ी।ये वाली छोटी काग़ज़ी बेल है।साइज़ में बहुत छोटी होती है।इसमें बीज बहुत कम होते हैं,आमतौर पर बस तीन या चार।अगर किसी फल में ज़्यादा हुए तो भी इकाई का आंकड़ा पार नहीं करते।देसी काग़ज़ी बेल की कलमें अब लोग नहीं लगाते।ज़्यादा फल देने वाले संकर बेल के पेड़ की तरफ़ आकर्षित होते हैं।इसलिए जो काग़ज़ी बेल के पुराने पेड़ हैं वही चले आ रहे हैं,नए लग नहीं रहे।कागज़ी बेल कमरे में रखने पर पूरा कमरा बेल की ख़ुशबू से महक उठता है।पीने में दूध सी रवानी होती है और मिठास के क्या कहने,आला दर्जे की होती है।ऊपर से शक्कर की ज़रूरत नहीं होती।बेल को तोड़ने के बाद इसके छिलके को चम्मच से खुरचकर खाने का अपना ही लुत्फ़ है।बेल की कई और भी किस्में चलन में हैं,जैसे देवरईहा,बड़ी,मिर्ज़ापुरी,नरेन्दर,गोला वग़ैरह लेकिन वो काग़ज़ी देसी बेल की टक्कर की नहीं होतीं।लेकिन फिर भी सबका अपना ज़ायक़ा अलग है,सबका आनंद लेना चाहिए।बेल कौए को पसंद नहीं होती।वजह कि कौए की आदत जगह-जगह चोंच चलाने की होती है और बेल के सख़्त फल पर उसका ज़ोर नहीं चलता।बाकी परिंदे यूँ भी शरीफ़ होते हैं।बेवजह चोंच नहीं मारते फिरते।बेल का शरबत पीने से दिल दिमाग़ और बेली तीनों को ख़ुशी हासिल होती है।इस शदीद गर्मी में बेल का शर्बत गर्मी से राहत पहुंचाने वाले उन्सुर मतलब तत्व से भरपूर पेय होता है।अभी आज तो चैत ही है,इसलिए इफ़्तारी में चने संग इसका मेल रहा।पुराने ग्रामीण बुज़ुर्ग़ों से सुनी देशज कहावत याद आ रही है कि
‘चैत में चना बैसाख में बेल,चैत में बेल तो चने का मेल
जेठ में खटिया संग मेल,असाढ़ में बबुआ करले खेल
सावन में जब मँडरावैं बर्रे,तब सावन नित खाओ हर्रे
भादों भदर भदर जो गरजै,तीता खाने को जी लरजै
कुआर मास में खाओ भेली,कातिक में मूली हमजोली
अगहन देह लगाओ तेल,पूस में राखो दूध से मेल
माघ मास में खिचड़ी खाओ,फागुन में उठ भोर नहाओ
जे ई सनद में अपने धरिहैं,रोग ब्याध सब उनसे डरिहैं’
बेल से बेल का मुरब्बा भी बनता है।मुरब्बा बनाने की कला फ़ारस से हिंदोस्तान आयी।मुरब्बा अरबी का शब्द है।मुरब्बा बनाने वाले को मुरब्बासाज़ और इस कला को कार-ए-मुरब्बासाज़ी कहा जाता था।मुरब्बासाज़ों ने अपनी कला के जौहर दिखाते हुए तमाम फलों और नियामतों से मुरब्बे तैयार किए।तिब्बी हिकमत में बेल के मुरब्बे को बहुत फ़ायदे का माना गया है।जिन बेलों का मुरब्बा बनाना होता है उनको तभी पेड़ से तोड़ लिया जाता है जब वो पेड़ पर पकने के लिए तैयार हो जाएं।बेल का मुरब्बा बनाते समय मुरब्बासाज़ बेल के फलों को आरी से काटते हैं।क़रीब एक इंच मोटा टुकड़ा काटते हैं।अब बेल से लस छुड़ाने के लिए बेल को नुकीले हरबे से गोदकर पानी से धोते हैं।फिर पानी में उबाल भी लेते हैं ताकि बची लस भी जाती रहे।अब बेल के टुकड़े नर्म हो जाते हैं।छिलके और बीज को अब निकाला जाता है और दो तार की चाशनी में हल्का सा उबाल लिया जाता है।पहले केसर पड़ता था,लेकिन अब केसर कस्तूरी जैसा नायाब हो चला तो ज़र्द रंग पड़ता है और बस फिर मुरब्बा तैयार।ये बेल का मुरब्बा गर्मियों में बहुत राहत देता है।बेल को ख़ासतौर से बेली मतलब पेट के लिए अमृत माना जाता है।आज के शर्बत में गार्निश के लिए पुदीने की पत्तियों का इस्तेमाल हुआ है और शरबत ठंडा करने के लिए बर्फ़ के टुकड़े पड़े हैं। बेल के कुदरती मीठे शरबत पर किसका दिल ना आ जाए। शौक़ीनों का दिल तो बेल का शर्बत देख यूँ बल्लियों उछलने लगता है जैसे बादाकश का दिल गुलाबी के प्यालोंं को देख मगन हो जाता है।
-डॉ शारिक अहमद खान