आज़मगढ़ : लोकसभा का उपचुनाव एक नजर में…

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अहम के संघर्ष का शिकार न हो जाय भाजपा?

-एम सांकृत्यायन

यूपी में आज़मगढ़ और रामपुर लोकसभा की दो सीटों पर उपचुनाव हो रहा है, जिसमें आज़मगढ़ की सीट सबसे हॉट सीट बन गई है। या फिर दूसरे शब्दों में आज़मगढ़ में मौसम की तपिश के साथ-साथ सियासी तपिश भी अपने पूरे सबाब पर है। सभी दलों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। सपा सुप्रीमों अखिलेश यादव जी इस्तीफे के बाद खाली हुई लोकसभा की इस सीट पर उपचुनाव हेतु आगामी 23 जून को मतदान होना है।
आज़मगढ़ विद्रोह और विद्वानों की सरजमीं है, शायद यही कारण है कि यहाँ की सियासत में विद्रोह के अंकुर पुष्पित एवं पल्लवित होते है। जिसे हम बीते विधानसभा चुनाव के नतीजों के रूप में देख सकते हैं। जिसमें 10 सीटों में से एक भी सीट पर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी अपना कमल नहीं खिला पाई।
इन सबके बावजूद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व, पूर्वांचल के अपने कद्दावर नेता यशवन्त सिंह को दरकिनार करके पता नहीं निरहुआ को जिताना चाहती है या उसकी नैया एक बार फिर बीच भँवर में फंसाना चाहती है। यह तो भाजपा के शीर्ष संगठन के श्रीमान जी लोग ही बता सकते हैं। किन्तु यह बात आज़मगढ़ की सियासत में रुचि रखने वाले नेताओं व प्रबुद्धजनों की समझ से परे है। क्योंकि अभी एमएलसी के चुनाव में भाजपाई जिसमें उनका अधिकृत प्रत्याशी ही नहीं, सपा सुप्रीमों के सूरमा भी यशवन्त सिंह के राजनैतिक कौशल का लोहा मान गये। ऐसे में जिस नेता को इस उपचुनाव के पहले ही पार्टी में शामिल करके अपनी भूल सुधार लेनी चाहिए थी। उसे अपने अहंकार के कारण पार्टी में शामिल न करके दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ का ही नहीं बल्कि भाजपा अपनी क्षति कर रही है। क्योंकि चुनाव के दौरान हुई छोटी सी भी भूल बाद में शूल सदृश्य हिय में सालती है।
ऐसे में यदि आज़मगढ़ के भाजपाई नेताओं और संगठन की माने तो भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को हस्तक्षेप करते हुए तत्काल प्रदेश नेतृत्व को निर्देश देना चाहिए कि वह पार्टी को मजबूत बनाने के लिए यशवन्त सिंह और उनके समर्थकों को पार्टी में सम्मिलित कर ले और अहम जिम्मेदारी प्रदान करे ताकि आज़मगढ़-मऊ जनपद में मजबूत पकड़ रखने वाले नेता के नेटवर्क का इस्तेमाल करते हुए एमएलसी चुनाव की तरह ही लोकसभा के इस उपचुनाव में भी कमल खिलना सुनिश्चित हो सके। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आज़मगढ़ लोकसभा सीट पर हो रहे त्रिकोणात्मक चुनाव को अपने पक्ष में करना बालू से तेल निकालना ही होगा। विश्वस्त सूत्रों की माने तो दिनाँक 18 जून 2022 को श्रीमान सुनील बंसल की एक मीटिंग शहर के गरुड़ होटल में हुई थी, जिसमें अधिकांश वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने यशवन्त सिंह के घर वापसी की बात कही किन्तु जो हश्र सरकारी दफ्तरों में जनता जी फाइलों का होता है, वही हाल यहाँ भी ‘ढाक के तीन पात’ जैसा हुआ। क्योंकि हवा में तीर चलाकर निशाना तो सीखा जा सकता है किन्तु चुनाव नहीं जीता जा सकता है। चुनाव संख्याबल का खेल होता है। मुझे नहीं लगता कि एक-एक मत का महत्व भाजपा से बेहतर कोई दूसरा दल जानता हो। ऐसे में निःशुल्क सलाह यह है कि आत्मघाती फैसले से बचना ही बुद्धिमानी है।

 

हाथी की सवारी करके क्या दिल्ली पहुँच सकते हैं शाह आलम गुड्डू जमाली?

बात बसपा के शाह आलम गुड्डू जमाली साहब की भी कर लेते हैं। इन्हें हाथी की सवारी सूट करती है। जब भी बीएसपी के चुनाव चिह्न पर लड़े, सफ़लता सिर झुकाये सलाम करती रही। बीच में कुछ भटक गये थे लेकिन बिना विलम्ब के गलती सुधार लिए, जिसका लाभ प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष मिलता दिख भी रहा है। क्योंकि शाह आलम गुड्डू जमाली के जीत की चाभी उनके ही बंधुबान्धवों के पास है। जो अपना पत्ता समय पर खोलते हैं। परन्तु हकीकत यह है कि मुस्लिम मतदाता अपने मत का प्रयोग दिमाग से करता है। इसलिए मैं उनकी जीत इस नजरिये से देखता हूँ कि उनका बेसकोर मतदाता शतप्रतिशत मतदान करता है। तथा अबकी बार मतदाताओं की निष्क्रियता और भीषण गर्मी के कारण मतदान 50 प्रतिशत से कम होने की सम्भावना है और यदि ऐसा हुआ तो गुड्डू जमाली कमाल कर जायेंगे। इसके अलावा वह आयातित प्रत्याशी नहीं है, वह सर्व सुलभ, नेकदिल व मिलनसार हैं। ऐसे में विद्रोह की सरजमीं के लोग उन्हें बाहरी प्रत्याशियों की तुलना में ज्यादा पसन्द करते हैं। वह अपना चुनाव प्रचार भी बहुत खामोशी से कर रहे हैं। इसके अलावा सत्तापक्ष व विपक्ष के प्रत्याशियों से वह शुरुआती लीड भी बनाये हुए हैं।

क्या अपना दुर्ग बचा पायेगी सपा?

कुछ नजर सपा प्रत्याशी पर भी फ़ेर लेते हैं। सपा ने इस चुनाव में अपना प्रत्याशी उतारने में जो विलम्ब किया उसका खामियाजा भुगतते हुए उसे डैमेज कन्ट्रोल करने में एक सप्ताह से ज्यादा समय लग गया। लेकिन आज़मगढ़ के सपाईयों ने दिन-रात एक करके अपनी चुनावी गाड़ी इस कदर दौड़ा दिया कि विगत दो-तीन दिनों से भाजपा और बसपा को पछाड़ते दिख रही है। चुनावी विश्लेषकों का मानना है कि आज़मगढ़ की लड़ाई सपा और बसपा के बीच होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है।
अरे! आज़मगढ़ तो सपा का ‘गढ़’ माना जाता है। ऐसे में कोई अल्पज्ञ ही होगा, जो सपा को नजरअन्दाज करेगा। जिसके दसों विधायक और राजभर नेता ओमप्रकाश भी यहाँ डेरा डाले हुए हैं। इसप्रकार सपा प्रत्याशी धर्मेन्द्र यादव ने मुकाबले को रोचक बनाते हुए खुद को जीत के दहलीज पर लाकर खड़ा कर लिया है।

यशवन्त की उपेक्षा महंगी न पड़ जाय…?

उपरोक्त परिस्थितियों के बावजूद यदि भाजपा प्रत्याशी दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ चुनाव जीतते हैं तो इसे भाजपा का 2024 का सेमीफाइनल समझा जायेगा और यदि किसी कारण से गड़बड़ा जाते हैं तो इसका पहला श्रेय- भाजपा के प्रदेश संगठन को मिलेगा, जिसके अविवेकी निर्णय की लड्डू खाकर प्रसंशा होगी क्योंकि कि ऐसा एक व्यक्ति के अहम के कारण ‘संघे शक्ति कलयुगे’ का उपहास उड़ाने के प्रतिफल के रूप में देखा जायेगा। दूसरा श्रेय- निरहुआ के साथ घूमने वाले पार्टी के नॉन सीरियस नौजवानों को भी जा सकता है। तीसरा श्रेय- विश्वस्त सूत्रों के अनुसार पार्टी के उन विधायकों, सांसदों और मंत्रियों को जायेगा, जो चुनाव प्रचार के बहाने पिकनिक मना रहे हैं। दिन में किसी चमचे या दोस्त के घर विधिवत भोजन व विश्राम फरमा रहे हैं। चौथा और अन्तिम श्रेय- यशवन्त सिंह और उनके समर्थकों की उपेक्षा के रूप में भी मिलेगा। क्योंकि तबतक ‘फिर पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुंग गई खेत’ की कहावत चरितार्थ हो चुकी होगी। चलते-चलते तीनों दलों और उनके प्रत्याशियों को 26 जून तक के लिए शुभकामनाएँ।
(लेखक : जनहित इंडिया के सम्पादक हैं।)

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