
ये मलीहाबादी दशहरी आम हैं। मलीहाबाद में एक ‘मोदी’ आम भी पैदा किया गया है,जो हुस्न-ए-आरा आम और मलीहाबादी दशहरी की क्रास ब्रीड है। इसे लखनऊ के मलीहाबाद के बाग़बान हाजी कलीमउल्लाह ने पैदा किया है।
इसी तरह से हाजी कलीमउल्लाह ने ‘योगी’ आम भी पैदा किया है जो ‘करेला ‘आम और मलीहाबादी दशहरी की क्रास ब्रीड है।पद्मश्री अवार्ड प्राप्त हाजी कलीमउल्लाह एक ही पेड़ से क़रीब तीन सौ क़िस्म के आम पैदा करने के लिए मशहूर हैं।
दशहरी आम की उत्पत्ति का इतिहास ये है कि नवाबी दौर के 18वीं सदी के लखनऊ के काकोरी के पास स्थित दशेरी गाँव में दशहरी आम की पहली क़लम एक मुस्लिम बाग़बान मोहम्मद अंसार के बाग़ में लगी। ये ग्राफ़्टेड क़लमी आम ऐसा पसंद किया गया कि नवाबों के महलों में धूम मचा गया। मलीहाबाद में पठान ज़मींदारों की बड़ी बस्ती थी, आज भी है।वो बाग़ लगाने के लिए मशहूर थे। उन्होंने अब दशेरी गाँव से मलीहाबाद ले जाकर इस दशहरी आम की क़लम लगायी।देखते ही देखते दशहरी आम के लाखों पेड़ हो गए। दशहरी आम की क़लमें देश-दुनिया में दूसरे स्थानों पर भी गईं और आज दशहरी आम हर जगह ख़ूब होते हैं। लेकिन इनमें सबसे बेहतर है मलीहाबादी दशहरी आम जो पूरी दुनिया में पसंद किया जाता है। ये आम दशहरी आम से साइज़ में बड़ा और लज़ीज़ होता है, ख़ुशबू भी ऐसी कि जहाँ रखा जाए, कमरा ख़ुशबू से भर जाए।
हिंदोस्तान में क़लमी आम के बाग़ लगाने का चलन सल्तनत के दौर के सुल्तानों के वक़्त में शुरू हुआ। तब आम के पेड़ से आम की क़लम बनाने के माहिर बाग़बानों ने क़लमी आम की पौध पैदा की। इसके पहले यहाँ बीजू आम ही होते थे जो छोटे होते थे, जैसे देसी आम।क़लम लगाने का यहाँ इल्म नहीं था।
अलाउद्दीन ख़िलजी आम का शौक़ीन था। उसने आम के बाग़ लगवाए और आम के मौसम में अपने क़िले में आम की दावत करता जिसमें तरह-तरह के आम परोसे जाते।

बाबर को बाग़ लगाने का बहुत शौक़ था, उसने हर फल के बाग़ लगाने के लिए कुशल बाग़बानों को हिंद बुलाया, उन बाग़बानों ने आम के पेड़ों से नई-नई क़लम तैयार करना शुरू की।
अकबर के दौर में आम के बाग़ कसरत से लगे। दरभंगा में अकबर ने एक लाख आम के पेड़ लगवाए। जहाँगीर ने लाहौर और दिल्ली के पास झरना क़ुतुब महरौली में क़लमी आम के बड़े बाग़ लगवाए।
बादशाह शाहजहाँ आम का बहुत शौक़ीन था। उसका पुत्र औरंगज़ेब जब दक्कन का वज़ीर था तो शाहजहाँ ने उसे हुक़्म दिया कि दक्कन के उसके बाग़ से लाल क़िले में आम भेजे जाएं। औरंगजेब ने नहीं भेजे।कुपित हो शाहजहाँ ने औरंगज़ेब को दंड दिया और उसको उसी के घर में नज़रबंद करवा दिया था। शाहजहाँ ने आम के लिए औरंगज़ेब को नज़रबंद किया, औरंगज़ेब ने बाद में नज़रबंदी का बदला शाहजहाँ को नज़रबंद कर लिया। शाहजहाँ के वक़्त में जब हिंदोस्तान के ताज के लिए जंग छिड़ी तो औरंगज़ेब ने फ़ारस के शाह अब्बास को आम भेजकर उसका सहयोग जंग में मांगा था।

मल्लिका-ए-हिंदोस्तान नूरजहाँ आम और गुलाब के मेल से शराब भी तैयार करती थीं जिसे शहज़ादा सलीम बड़े शौक़ से पिया करता।
बहरहाल, आम ऊंचे पहाड़ों पर नहीं होता था,गंग-ओ-जमन के मैदानों में ख़ूब होता। रवायत है कि एक बार काबुल के अमीर ने अपने वज़ीर को आम के वास्ते दिल्ली के सुल्तान के पास भेजा।उसके साथ काबुल से मेवों के बोरों से लदा लंबा काफ़िला भी कर दिया।वज़ीर ने दिल्ली पहुंच सुल्तान को मेवे दिए। लेकिन जब वज़ीर पहुंचा तो आम का मौसम ख़त्म हो चुका था जाते मौसम के जो आम मिले वो सुल्तान ने वज़ीर को देकर उसे काबुल रवाना किया।रास्ते में आम सड़ गए। जब वज़ीर काबुल पहुंचा तो अमीर ने उसे दरबार में तलब किया,पूछा कि आम कहाँ हैं।वज़ीर ने जवाब दिया कि सड़ गए थे,फेंक दिए।अमीर ने सवाल किया कि आख़िर आम होते कैसे हैं।क्योंकि अमीर ने कभी आम नहीं देखे थे।ये सुन वज़ीर ने चीनी मंगाई,उसे बर्तन में डाल पानी में घोला और उसमें अपनी दाढ़ी डालकर कहा कि ‘ऐसे होते हैं, मीठे और रेशेदार’।
मलीहाबादी दशहरी का ज़िक्र हो तो शायर जोश मलीहाबादी का ज़िक्र ज़रूरी है। जोश के पास मलीहाबाद में आम के पैतृक बाग़ थे। जोश को आम तो पसंद थे ही,आम के बाग़ में चारपाई पर लेटकर नए शेर गढ़ना और आराम फ़रमाना भी पसंद था। कहते हैं कि आम के साए में लेटने से इंसान आलसी हो जाता है। लेकिन जोश को नौकरी की तलाश में लखनऊ से हैदराबाद जाना ही पड़ा। तब जोश मलीहाबादी ने लिखा कि-
‘ एै मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्ताँ अलविदा
अलविदा-ए-सरज़मीन-ए-सुब्ह-खंदा अलविदा
अलविदा एै किश्वरे शेरो-शबिस्ताँ अलविदा
अलविदा-एै-जलवागाहे हुस्नो जानाँ अलविदा
आम के बाग़ों में जब बरसात होगी पुरखरोश
मेरी फ़ुरक़त में लहू रोएगी चश्मे मय फ़रामोश
एै मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्ताँ अलविदा’

-डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान
