अखबारों से व्यंग्य विधा की विदा

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दैनिक हिन्दुस्तान के पाठक देखते रह गए और सम्पादकीय पृष्ठ के ‘नश्तर’ स्तम्भ पर सम्पादक जी का नश्तर चल गया. व्यंग्य रचनाओं से सजा हुआ नश्तर स्तम्भ हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ के केंद्र पर दशकों से कब्ज़ा जमाये बैठा था. उसकी पैनी धार के सामने भ्रष्टाचार और तोल मोल में लिप्त पराक्रमियों के छक्के छूट जाते थे भले वे राजनीति, शिक्षाजगत, न्यायपालिका, नौकरशाही, क्रीड़ाजगत अर्थात समाज और व्यवस्था के किसी अंग के मठाधीश क्यों न हों. व्यंग्य का स्वभाव होता है मुस्कराते हुए सामाजिक विडंबनाओं की तरफ इंगित करना. नश्तर स्तम्भ भी व्यक्तिविशेष का नाम लिए बिना समाज की सड़ी गली विसंगतियों का पर्दाफाश करता था. इस प्रक्रिया में किसी न किसी को पीड़ा और चुभन होनी ही थी लेकिन उसे कम करता था हास्य का अनेस्थेसिया. पत्रकारिता का अनुभव न हो तो भी यह समझना कठिन नहीं कि व्यावसायिक रूप से चलाये जाने वाले अखबार अपने सीमित स्पेस का उपयोग पाठकों की रूचि को ध्यान में रखकर ही करते हैं. केवल विज्ञापनों से पूरा अखबार भर जाता तो शायद प्रकाशक को सबसे ज़्यादा खुशी होती लेकिन विज्ञापन वाले पर्चों और अखबार में फर्क बनाये रखने के लिए सम्पादकीय विभाग को अपना किरदार निभाना होता है. क्या प्रकाशित हो, कितना प्रकाशित हो यह तय करने में पाठकों की रूचि ही सर्वोच्च प्राथमिकता होती है. ज़ाहिर है कि पाठकों की पसंद को ध्यान में रखकर ही नश्तर जैसे व्यंग्य स्तंभ की शब्दसीमा घटाते घटाते तीन सौ पचास शब्दों तक लाई गई होगी, भले व्यंग्यकार सोचते रह जाएँ कि नंगी क्या नहायेगी और क्या निचोड़ेगी. व्यंग्य के आकार में कतरब्योंत एक अखबार तक सीमित नहीं रही. लगभग सभी अखबारों में व्यंग्य लंगोटी भर साइज़ से अपनी लाज छिपाने को मजबूर हो गया है. उनमे प्रकाशित होने वाले व्यंग्यकारों ने समझने में देर नहीं लगाई कि छपना है तो निर्धारित शब्द सीमा के अंदर ही लिखना होगा.यह गुर उन्होंने वैसे ही सीख लिया जैसे मदारी का बन्दर दर्शकों की बनाई हुई परिधि के अन्दर ही सारी कलाबाजियां दिखाने में निष्णात हो जाता है. लेकिन वह सीमित सा दायरा भी यदि उससे छीन लिया जाए तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि मदारी का खेला देखने में दर्शकों की रूचि ख़तम हो चुकी है.
हिन्दुस्तान अकेला अखबार नहीं जिसने व्यंग्य विधा को अलविदा कहा है. अमर उजाला का व्यंग्य स्तम्भ ‘तमाशा’ सप्ताह में छः दिन सम्पादकीय पृष्ठ का आकर्षण बना रहता था. लेकिन वह भी अकालमृत्यु को प्राप्त हुआ. अमर उजाला ने व्यंग्य विधा को तिलांजलि तो नहीं दी है लेकिन सप्ताह में एक दिन निकलने वाले परिशिष्ट ‘मनोरंजन’ में आधे पृष्ठ में दो तीन व्यंग्य रचनाओं तक सीमित रखकर उसके हिस्से के स्पेस में कमी कर दी है. दैनिक जागरण में भी व्यंग्य विधा के लिए सप्ताह में एक दिन ही जगह होती है. जनसत्ता के ‘दुनिया मेरे आगे’ स्तम्भ में विविध विषयों को टटोलते आलेखों के बीच कोई चतुर लेखक भले चुपके से कटाक्ष कर ले जाए लेकिन व्यंग्य विधा में इस स्तम्भ की रूचि नहीं.
राष्ट्रीय स्तर से आगे बढ़कर प्रादेशिक अखबारों पर नज़र डालें तो दैनिक ट्रिब्यून और नई खबर में सप्ताह के कुछ दिन व्यंग्य रचनाएं दिखती हैं. प्रभात खबर का ‘कुछ अलग’ स्तम्भ का व्यंग्य से बहुत दूर का रिश्ता है. नई दुनिया, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर आदि अनेक प्रतिष्ठित अखबार हैं जिनमे तरह तरह की रुचियों का ध्यान रखा जाता है लेकिन व्यंग्यविधा के गुणग्राहक नहीं हैं वे. अखबारों में छपने वाले व्यंग्य शब्द सीमा की मार से सिकुड़कर धोती से लंगोटी और लंगोटी से रुमाल बनते जा रहे हैं जबकि अच्छी व्यंग्य रचनाओं का सौन्दर्य शास्त्रीय संगीत की तरह आरोह अवरोह आलाप की मद्धिम आंच में सजाने पर ही पूरी तरह निखरता है. इस काम का बीड़ा अखबारों की जगह पत्रिकाएं बेहतर उठा सकती हैं. लेकिन जिन पाठकों की पसंद की बलि चढ़कर सम्पादकीय पृष्ठ की व्यंग्य रचनाएं लगातार सिकुड़ते सिकुड़ते अदृश्य होती जा रही हैं उनकी पसंद से पत्रिकाएं भी छपतीं तो व्यंग्य की कुल दो बची हुई पत्रिकायें व्यंग्ययात्रा और (उसके साथ आल्सो रैन) अट्टहास भी कभी की विस्मृति के गर्त में खो चुकी होतीं. ज़ाहिर है कि उनके समर्पित सम्पादकों ने इन्हें जीवित रखने का व्रत ले रखा है. शायद इन पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले व्यंग्यकार ही इन पत्रिकाओं के स्थायी पाठक हैं. लेकिन फ़िलहाल बात को अखबारों के व्यंग्य स्तंभों तक ही सीमित रखते हैं.
व्यंग्य विधा से अखबारों के मोहभंग का कारण दो दिशाओं में तलाशा जा सकता है. पहली दिशा आज के पाठक और दूसरी दिशा आज के व्यंग्य लेखन की तरफ ले जाती है. समय की रफ़्तार से कदम मिलाकर भागते हुए आम पाठक को अब चैन से बैठकर कुछ भी पढ़ने की सुध कहाँ. असली और आभासी मित्रों की बदौलत उसके जीवन में व्हाट्स एप और अन्य सोशल मीडिया की पिचकारियों से हास्य का रंग चुटकुलों के रूप में घुलता रहता है. उसे तो अब शारीरिक भोजन भी कैप्सूल के रूप में पाने की इंतज़ार है, मानसिक भोजन की फ़िक्र कौन करे. अब चलें आज के व्यंग्य लेखन से रूबरू होने. अखबारों में छपने वाली व्यंग्य रचनाएं परसाई जी और शरद जोशी जी के समय से ही राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर केन्द्रित रही हैं. चुने हुए जन प्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त को लेकर लिखे हुए व्यंग्य सेंसेक्स और निफ्टी में उतार चढ़ाव के ब्योरे जितने आकर्षक लग सकते हैं लेकिन उनका नयापन जा चुका है. हमारे समाज और देश में जो नई घटनाएँ पूरे देश के विघटन की तरफ इंगित कर रही हैं उनके विषय में व्यंग्य लिखने और छापने के लिए सीस उतारे भुईं धरे वाला जज़्बा चाहिए. जब फिल्मों की ईमानदार समीक्षा प्रकाशित करना खतरे से खाली नहीं बचा हो तो देश को टुकड़ों टुकड़ों में बांटने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य लिखने और छापने वाले माई के लाल कहाँ मिलेंगे. व्यंग्य ऐसा गढ्ढा बन गया है जिसे खोदने वाला खुद उसी में दफ़न कर दिया जाता है.
लेकिन जगह तो अखबारों को भरनी ही पड़ती है. इस चिंता से मुक्ति पाने का सबसे लोकप्रिय तरीका लगता है सम्पादकीय पृष्ठ पर धर्म, दर्शन, जीवन दृष्टि जैसे सुन्दर और टिकाऊ विषयों की पुनर्स्थापना. जब मुख पृष्ठ से लेकर अन्दर तक सभी पन्ने हत्या, बलात्कार, डकैती आदि की खबरों वाले लहू के लाल रंग में रंगे हुए हों तो सम्पादकीय पृष्ठ के केंद्र के बॉक्स में दो संभावनाएं ही बचती हैं. या तो उस दिन की सबसे वीभत्स हत्या, बलात्कार वाली खबरें चटखारे लेकर उस जगह में छापी जाएँ या देश में सबसे ज़्यादा बाज़ारभाव कमांड करने वाले किसी पहुंचे हुए संतशिरोमणि के सुभाषित. अखबारों की बिक्री बढ़ाने का रामबाण नुस्खा यही है अब. पाठक तो पहले ही घोषित कर चुका है ‘पहले आती थी हाले दिल पे हँसी,अब किसी बात पर नहीं आती”
-अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
D-295, Sector-47, Noida- 201303
Mob: 9811631141, E-mail: arungraphicsverma@gmail.com

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