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बनारस दुनिया के उन शहरों में है जो अपनी निरंतरता में सबसे प्राचीन हैं। किसी भी काल में बनारस का अस्तित्व मिल जाता है। ऐसा दूसरा शहर दमिश्क है। दमिश्क इन दिनों तहस-नहस है — उसे उन लोगों ने बरबाद कर दिया जो यह समझते हैं कि वे असली इस्लामी राज्य ला रहे हैं। वह अब शहर नहीं, खंडहर है।
आज के दमिश्क के साथ आज के बनारस की तुलना नहीं की जा सकती। बनारस सौभाग्यशाली है। हालांकि यहां भी एक तरह का सांस्कृतिक ध्वंस जारी है। दरअसल वह पूरे भारत का, पूरी भारतीयता का ध्वंस है जिसे बनारस के विश्वनाथ मंदिर के बदलाव में ठोस ढंग से पहचाना जा सकता है। यह मंदिर अब पुरानी सहज आस्था का केंद्र नहीं, सैलानी आस्था का ठिकाना है जिसका एक बड़ा आकर्षण इसकी भव्यता है, यहां घूमने की आसानी है, कर्मकांड की सरलता है।
जो एक जीवंत अतीत था, जो मंदिर की संकरी गलियों में सांस लेता था, अब वह बेजान तस्वीरों, झांकियों और अभिलेखों का हिस्सा हो गया है। लोग अब उसे जान लेंगे, लेकिन महसूस नहीं कर पाएंगे। उनके पांवों के नीचे जो ज़मीन होगी, उसमें सदियों से पड़ रहे पदचापों का कंपन नहीं होगा, उसमें वह स्पंदन नहीं होगा जो बनारस को पहले शिव के पांव की धूल बनाता है और फिर धूल-धूल में बनारस को बसाता है।
दरअसल सदियों पुराने मंदिरों और स्थापत्यों को बहुत सावधानी से हाथ लगाना चाहिए। उनमें उनकी आत्मा बसी होती है, उनकी ख़ुशबू बोलती होती है। आप उन्हें छूते हैं, जादू ख़त्म हो जाता है। भव्य मंदिरों की भव्य मूर्तियां रह जाती हैं, देवता चुपचाप निकल आते हैं। प्रोफ़ेसर-लेखक और संस्कृतिधर्मी आशुतोष कुमार ने अपनी फेसबुक पोस्ट पर बहुत मार्मिक ढंग से याद दिलाया है कि लोक में बसे शिव को हाथी-घोड़े, शाल-दुशाले, कोठे अटारी से ख़ुश नहीं किया जा सकता। आप यह करते हैं और शिव गायब हो जाते हैं, मंदिर की जगह उसका स्थापत्य रह जाता है, ‘विशाल देवालयों के घंटे-घड़ियालों में एक सन्नाटा बजता रह जाता है।’
तो जो लोग ‘कोठा-अटारी’ बनाकर शिव को बसाने चले हैं, जो ‘अविनाशी काशी’ का माहातम्य गाते नहीं थक रहे, वे दरअसल शिव की सांस्कृतिक कल्पना को, शिव से जुड़ी लोक-चेतना को ठोकर मार कर ही यह काम कर रहे हैं। शिव को दिखाऊ भव्यता-दिव्यता रास नहीं आती। वे नंदी पर बैठने वाले, मृगछाल ओढ़ने वाले, धतुरा खाकर प्रसन्न रहने वाले देवता हैं।
शिव को विराट उपक्रमों से नहीं लुभाया जा सकता। वे दुनिया की परिक्रमा करने वाले कार्तिकेय से प्रसन्न नहीं होते, बस अपने चारों ओर घूम लेने वाले गणेश से खुश हो जाते हैं। जिसकी जटाओं में गंगा है, उस गंगाधर तक गंगा का पानी लाने में आसानी हो, इसके लिए तोड़फोड़ की गई है — यह बात क्या विस्मय में डालने वाली नहीं है?
लेकिन यह वाराणसी का नहीं, पूरे भारत का हाल है। धर्म से अध्यात्म के तत्त्व को निकाल दिया गया है जो उसका प्राण है। अब उसे एक सांगठनिक शक्ति की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है जिसमें एक तरह की पाशविकता है। उसे एक आर्थिक व्यापार की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें भारी मुनाफ़ा है।
शिव का एक अर्थ कल्याण भी होता है और वह सत्य से मिलकर सुंदर और सार्थक होता है। सत्यम शिवम सुंदरम का दर्शन इस देश में उतना ही पुराना है जितनी शिव की अवधारणा। दुर्भाग्य से जो लोग शिव के नाम पर विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कर रहे हैं, वे सत्य के उपासक नहीं हैं। सत्य उन्हें डराता है।
(एनडीटीवी पोर्टल पर शाया प्रियदर्शन के ब्लॉग का अंश)