… नहीं चाहिए विज्ञापन? – एम. सांकृत्यायन

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राजनैतिक नैतिकता के लिए संसदात्मक शासन प्रणाली वाले देश में सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्तों का पालन बहुत जरूरी होता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो यह उस शासन प्रणाली के साथ अन्याय माना जाता है। इसलिए अबकी बार की ‘अपनी बात’ में ऐसे ही कुछ ज्वलन्त मुद्दों पर बात की जायेगी।

भारतीय राजनीति में एकाध राजनेता को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाय तो सबके सब महा बप्पा हैं। उनके भाषणों से मानो आँधी आती है। जुमलेबाजी की होड़ में वह किसी को भी पछाड़ सकते हैं। थूक के चाटने में उनका कोई सानी नहीं है। सामूहिक उत्तरदायित्व की बात उनके ठेंगे पर रहती है। जबकि सामूहिक उत्तरदायित्व के अन्तर्गत यह कहा जाता है कि मंत्रिपरिषद के सदस्य एक साथ तैरते हैं और एक साथ डूब जाते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार जब सरकार ने मनमाने तरीके से संसद में तीन कृषि बिल पास करवा ही लिया था और किसान उसे वापस करने की मांग कर रहे थे तो सरकार के लोग अपने अड़ियल रुख से टस से मस भी नहीं हो रहे थे। जिसके फलस्वरूप आन्दोलनरत लगभग 700 किसान शहीद हो गए। विगत एक वर्ष के आन्दोलन के बाद तीनों कृषि बिल वापस लेने को किस श्रेणी में रखा जाय यह तो पब्लिक खूब अच्छी तरह से जानती है। इसे कुछ कड़वे शब्दों में कहें तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि- लौट के बुद्धू घर को आये।
दूसरे रही बात राजनैतिक नैतिकता की तो वह भी ताख पर रख दिया है। जनता देख रही है कि अजय मिश्र टेनी अपने पुत्र मोह में महाभारत के धृतराष्ट्र को भी मात दे रहे हैं। इतना ही नहीं तथाकथित महान राष्ट्र भक्तों की सरकार में गृह राज्यमंत्री के पद की शोभा में चार-चाँद भी लगा रहे हैं। और बेचारे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को उसकी असली औकात भी बता रहे हैं। इनके लिए सही कहावत है- सौ-सौ जूता खाय, तमाशा घुसकर देखों। यह राजनीति में अपराधीकरण और भ्रष्टाचार का एक बेहतरीन नमूना है। ऐसे में लगता है कि जनता को भी इसी सब में मजा आता है और उसे यही सब चाहिए? क्योंकि किसी के भी जुबान पर लगाम नाम की कोई चीज़ नहीं है। यूपी के वर्तमान और भावी सीएम पद के दोनों जनाब सियासत की बिसात जनता को असल मुद्दों से भटका रहे हैं। और याद रखने की बात यह भी है कि हमारे यही हीरो, लालबहादुर शास्त्री, बल्लभ भाई पटेल के नामों की माला जपते हैं और गाँधी जी की समाधि पर भी जाते हैं।
जबकि हकीकत यह है कि इस देश के किसान और जवान ही दो सच्चे सपूत हैं। जब यह ही खुशहाल नहीं रहेंगे तो आपकी नीतियाँ किस काम की हैं। आप नवजवानों को रोजगार तो दे ही नहीं पा रहे हो, आपके अस्पतालों के हालात जगजाहिर हैं। शिक्षा व्यवस्था को लेकर आप कितने गंभीर हैं? यह भी सबको पता है। आपको नून-तेल, दाल-चावल और पेट्रोल आदि का भाव तो मालूम ही होगा? यदि नहीं तो गरीबी की स्थिति ठीक से जरूर पता होगी? यह ज्वलंत सवाल सुरसा के मुँह की भाँति हमेशा खुले रहेंगे।
अनायास ही बौद्धकाल की एक घटना याद आ गई- एक दिन बुद्ध का एक शिष्य, एक भूखे व्यक्ति को उनके सम्मुख ले आया और कहा-प्रभु!इसपर करुणा करके इसे अपने उपदेशों से कृतार्थ कीजिए। बुद्ध उसे देखते ही जान गये कि यह कई दिनों का भूखा है, इसलिए उसे भरपेट भोजन कराने को कहे। भोजन करने के बाद जब बुद्ध ने उसे घर जाने को कहा तब शिष्यों ने पूछा- भगवन! आपने उसे उपदेश नहीं दिया? बुद्ध का प्रतिउत्तर था- उसके लिए आज अन्न (भोजन) ही उपदेश था। इसलिए देश को जिस चीज़ की ज्यादा जरूरत है, वही चाहिए और उसी पर विचार-विमर्श होना चाहिए?
इसलिए ‘अपनी बात’ इस संदेश के साथ समाप्त करना चाहता हूँ- हमारे देश की मीडिया सिर्फ विज्ञापन का खेल, खेल रही है। वह विज्ञापन के लिए वैश्या की भूमिका कर रही है। अभी राजनेताओं के कोप का भाजन हो रही है किन्तु यदि भविष्य में भी वह अपनी इन आदतों में सुधार नहीं लाती है तो जनता के क्रोध से रूबरू होगी। यही वज़ह है कि सीजेआई ने पत्रकारिता में आई गिरावट को लेकर चिन्ता जताते हुए गंभीर टिप्पणी भी किया है। मुझे पता है कि मैं अपनी बात के माध्यम से बहुत कुछ नहीं कर सकता हूँ लेकिन विगत लगभग 10 सालों के अनुभवों के आधार पर यह तो कह सकता हूँ कि मुझे आपका विज्ञापन नहीं चाहिए।

Shivam Rai

समकालीन मुद्दों पर लेखन। साहित्य व रंगकर्म से जुड़ाव।

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