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जो असली नेता होता है वो किसी भी पार्टी में जाकर राजनीति कर लेता है, उसका अपना क़द होता है, उसके अपने लोग होते हैं, उसका अपना बाहुबल होता, धनबल होता है। उसको हर पार्टी अपने साथ लेना चाहती है, स्वागत करती है, चुनाव के वक़्त भी गया तो टिकट देती है, मांग पूरी करती है। स्वामी प्रसाद मौर्या हों या दारा सिंह चौहान इसी कोटि के व्यक्ति हैं। मायावती जी ने उनको सम्मान से लाद दिया लेकिन बाद में स्वामी ने मनमानी करनी चाही, नहीं करने दी गई तो वहाँ से भाग गए, फिर एक वक़्त आया कि भाजपा में घुस गए, वो वक्ता अच्छे थे, सेक्युलर थे, जिस भाजपा को कोसते थे वहाँ जाकर वहाँ के तोते हुए, कम्युनल हो गए। इस चुनाव में भाजपा में हैसियत से बढ़कर अपने लोगों को टिकट दिलाना चाहते थे, लिस्ट दे बैठे थे, उनकी लिस्ट फाड़ दी गई तो वहाँ से भाग लिए। अब सपा में घुस आए, अब फिर सेक्युलर का सार्टिफ़िकेट पा गए, अब सपा की राजनीति करेंगे। सपा में उनका स्वागत हो रहा है।
इसी तरह से रमाकांत यादव थे, सपा में थे, फिर भाजपा में चले गए, मुलायम सिंह के ख़िलाफ़ भाजपा से चुनाव लड़ा। अब रमाकांत फिर सपा में हैं, वजह कि वो नेता हैं, उनका अपना वजूद है। लिहाज़ा जो नेता होता है उसके लिए पार्टी मायने नहीं रखती। आज के दौर में उसूलों और ईमानदारी वाली पुरानी राजनीति नहीं रही, आज के दौर में या तो बेवकूफ़ नेता टिकट ना मिलने पर या अपमानित होने पर या हाशिए पर रखे जाने पर एक पार्टी में चिपका रहता है या वो जिसका अपना कोई वजूद नहीं होता, पार्टी पर ही आश्रित होता है, टिकट मिलने पर पार्टी के नाम पर मिलने वाले वोटों के भरोसे होता है, ख़ुद की वोटों की थैली नहीं होती।
ऐसे लोग बस एक ही रट लगाए रहते हैं कि मेरे लिए पार्टी का फ़ैसला सिर-आँखों पर है। इसके अलावा वो कुछ कर भी नहीं सकते, क्योंकि अपनी कोई सियासी औक़ात उनकी नहीं होती। पार्टी आलाकमान अब ख़ुद गांधी-लोहिया कांशीराम की तरह ईमानदार और उसूलों वाला नहीं है तो तुम क्यों दल पर बलिहारी हुए जा रहे हो, इसीलिए ना कि अपनी हैसियत ही नहीं है। आज के दौर में टिकट और पद उसी को मिलता है जो पार्टी आलाकमान को डरा ले जाने की हैसियत रखता हो, जिससे पार्टी डरे कि टिकट नहीं दिया तो नुकसान होगा।
-डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान