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भारत के आठ शास्त्रीय नृत्यों में सबसे पुराना कत्थक है। इस संस्कृत शब्द का अर्थ होता है कहानी सुनाने वाला। मध्य काल में कत्थक का संबंध कृष्ण कथा और नृत्य से था। आगे चलकर मुग़ल प्रभाव आने से यह नृत्य दरबारों में बादशाहों के मनोरंजन के लिए किया जाने लगा। कत्थक नृत्य बिरजू महाराज को विरासत में मिला। उनके पूर्वज इलाहाबाद की हंडिया तहसील के रहने वाले थे। यहां सन 1800 में कत्थक कलाकारों के 989 परिवार रहते थे। आज भी वहां कथकों का तालाब और सती चौरा है। गाँव में सूखा पढ़ने पर लखनऊ के नवाब ने उनके पूर्वजों को राजकीय संरक्षण दिया और इस तरह बिरजू महाराज के पूर्वज नवाब वाजिद अली शाह को कत्थक का प्रशिक्षण देने लगे। आखिरकार आज कत्थक के पंडित की घुंघुरूओं की खनक खामोश हो गई।
बिरजू महाराज का जन्म 4 फरवरी 1938 को लखनऊ के ‘कालका-बिन्दादीन घराने’ में हुआ था। बिरजू महाराज का नाम पहले दुखहरण रखा गया था। यह बाद में बदल कर ‘बृजमोहन नाथ मिश्रा’ हुआ। इनके पिता का नाम जगन्नाथ महाराज था, जो ‘लखनऊ घराने’ से थे और वे अच्छन महाराज के नाम से जाने जाते थे। अच्छन महाराज और चाचा शम्भू महाराज का नाम देश के प्रसिद्ध कलाकारों में था। बिरजू महाराज जिस अस्पताल में पैदा हुए, उस दिन वहां उनके अलावा बाकी सब लड़कियों का जन्म हुआ था, इसी वजह से उनका नाम बृजमोहन रख दिया गया। जो आगे चलकर ‘बिरजू’ और फिर ‘बिरजू महाराज’ हो गया। बिरजू महाराज की तबला, पखावज, नाल, सितार आदि कई वाद्य यंत्रों पर भी महारत हासिल थी, वो बहुत अच्छे गायक, कवि व चित्रकार भी थे। बिरजू महाराज का ठुमरी, दादरा, भजन व ग़ज़ल गायकी में भी कोई जवाब नहीं था। कत्थक को अधिक लोग सीख पाएं इस उद्देश्य से पंडित बिरजू महाराज ने दिल्ली 1998 में कलाश्रम नाम से कत्थक केंद्र की स्थापना की।
बचपन से मिली संगीत व नृत्य की घुट्टी के दम पर बिरजू महाराज ने विभिन्न प्रकार की नृत्यावलियों जैसे गोवर्धन लीला, माखन चोरी, मालती-माधव, कुमार संभव व फाग बहार इत्यादि की रचना की। सत्यजीत राॅय की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के लिए भी इन्होंने उच्च कोटि की दो नृत्य नाटिकाएं रचीं। इन्हें ताल वाद्यों की विशिष्ट समझ थी, जैसे तबला, पखावज, ढोलक, नाल और तार वाले वाद्य वायलिन, स्वर मंडल व सितार इत्यादि के सुरों का भी उन्हें गहरा ज्ञान था। इन्होंने हजारों संगीत प्रस्तुतियां देश में देश के बाहर दीं।
अपनी कला में सब कुछ समेट लेने वाले पंडित बिरजू महाराज ने न केवल कथक के भंडार को आमूलचूल बदला बल्कि उसका जीवनकाल भी बढ़ाया। वे कथक के अकेले कलाकार हैं, जिन्हें भारत सरकार से पद्म विभूषण मिला। इस विद्वतापूर्ण मस्तिष्क, हृदय और शरीर में जो कुछ भी प्रवेश करता है, नृत्य में बदल जाता है। कथक की उनकी खोजों में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के सत्यजित राय, बालसरस्वती, जाकिर हुसैन, केलूचरण महापात्र और संजय लीला भंसाली जैसे महान कलाकारों के साथ मिलकर किए गए कई काम शामिल हैं। उन्होंने कत्थक के साथ कई प्रयोग किए और फिल्मों के लिए कोरिओग्राफ भी किया. उनकी तीन बेटियाँ और दो बेटे हैं।
1986 में उन्हें पद्म विभूषण से नवाजा गया। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा कालिदास सम्मान प्रमुख हैं। इनके साथ ही इन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं खैरागढ़ विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि मानद मिली। 2016 में हिन्दी फ़िल्म बाजीराव मस्तानी में ‘मोहे रंग दो लाल’ गाने पर नृत्य-निर्देशन के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। 2002 में उन्हें लता मंगेश्कर पुरस्कार से नवाजा गया। 2012 में ‘विश्वरूपम’ के लिए सर्वश्रेष्ठ नृत्य निर्देशन का और 2016 में ‘बाजीराव मस्तानी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ नृत्य निर्देशन का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला।
उनका आशियाना धीरे-धीरे कला का मंदिर बन चुका था। करीब पहुंचते ही घुंघुरूओं की खनक सुनाई देने लगती। एक ऊर्जा महसूस होती। माहौल में मिठास और आनंद को महसूस किया जा सकता था। यहां बिरजू महाराज के शिष्यों और प्रशंसकों का आना-जाना लगा रहता था। अगर कोई पंडित जी के घर के ड्राइंग रूप में पहुंचता था। वह गर्मजोशी से स्वागत करते। वह मेहमानों के लिए गुलाब जामुन, बर्फी, नमकीन, चाय पेश करते। जो भी उनसे मिलने आता, उसे मिठाई का भोग तो लगाना ही होता। इससे बचा नहीं जा सकता था।