आज़मगढ़ पुलिस के मुखिया पुलिस अधीक्षक अनुराग आर्य के कार्यों की इनदिनों जनता खूब प्रशंसा कर रही है। उनकी टीम द्वारा टीईटी परीक्षा में नकल कराने में सक्रिय नकल माफियाओं को सलाखों के पीछे पहुँचाकर जो काम किया है, वह खुद में बेमिसाल है। इस बड़े खेल का एक प्यादा डीआईओएस ऑफिस का बाबू धर्मेन्द्र राय उर्फ बबलू राय तो गिरफ्तार हुआ लेकिन इसका मास्टर माइंड अभी भी पुलिस के शिकंजे से बाहर है। इसलिए आज़मगढ़ के एक बड़े तबके में इस बात को लेकर अभी भी संदेह बना हुआ है कि वह बड़ी मछली कब जाल में फंसेंगी ?
बताते चलें कि अगर ये बड़ी मछलियाँ बच गई तो भविष्य में भी यह गोरख धन्धा इसी तरह से फलता-फूलता रहेगा। चलिए, विश्वस्त सूत्रों से मिला संकेत दे देता हूँ। जो इनमें से एक बड़ी मछली की ओर इशारा करता है। विगत लगभग 5 सालों से बगुला भगत की तरह आसान जमाये यहाँ डीआईओएस महाराज ही इस पूरे प्रकरण के नायक हैं, जो चलते-चलाते अपना परिचय दे दिए हैं। यदि डीआईओएस की भूमिका की निष्पक्ष जाँच की जाय तो पूरा मामला स्वतः साफ हो जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि बिल्ली के गले में आखिर घंटी कौन बाँधेगा? इसलिए पूरे प्रकरण के असली दोषियों के अतीत को खंगालना ज़रूरी है। इनकी अकूत व बेनामी सम्पत्तियों की भी जाँच होनी चाहिए। यदि ऐसा हो जाय तो ये भी माफियाओं के बाप निकलेंगे।
इसलिए अब देखना यह होगा कि आज़मगढ़ के डीआईओएस श्रीमान डॉ वीके शर्मा इस पूरे प्रकरण में कहाँ खड़े हैं? उनकी कितनी संलिप्तता है। क्योंकि ये महाराज भी दूध के धुले तो नहीं हैं। बताते चलें कि जब से शर्मा जी आज़मगढ़ में तशरीफ लाएँ हैं, तब से उनके चहेते बाबू बबलू राय उनसे जोंक की तरह से चिपके हुए थे। उनके हर सुख, मन सुख का पूरा ख्याल रखते थे। चाहे परिषदीय परीक्षाओं हेतु परीक्षा केंद्रों के निर्धारण में सुविधा शुल्क का एकत्रीकरण का जिम्मा हो या फिर उनके कार्यालय को कोई मलाई वाला काम हो। सबकी बोहनी बबलू राय ही करते थे और बड़ी ईमानदारी के साथ चुपके से साहब का हिस्सा उनके निज निवास तक पहुँचा देते थे। और डीआईओएस महाराज बगुला भगत की भाँति सफेदपोश दिखते हैं। साहब के सौन्दर्य प्रेम के बजाय उनके सुरा प्रेम पर सन्देह व संशय दोनों व्याप्त है। इसलिए अब ज्यादा कुछ न कहते हुए साहब के एक संस्मरण से अपनी बात समाप्त करता हूँ-
आज़मगढ़ में साहब के आये लगभग एक साल बीत चुके थे, कहीं से उन्हें पता चला कि शासन उनका स्थानान्तरण करने जा रहा है? साहब ने आज़मगढ़ के एक स्थानीय नेता जो एक विद्यालय के संचालक भी हैं से कहा कि मंत्री जी से कहकर मेरा ट्रान्सफर रोकवाइये। फिर क्या नेता जी लखनऊ रवाना हुए, घूमेघामे और अपना काम आदि निपटाए। तभी शाम को साहब का फोन आया, कहाँ हैं? आइए मैं फन माल के पास अमुक होटल (गेस्टहाउस) में विराजमान हूँ। आनन-फानन में नेता जी अपने एक साथी के साथ उक्त जगह पहुँचे। कमरे के अन्दर का दृश्य देखकर सन्न रह गये, अरे! यह क्या? साहब तो सुरा में सराबोर हैं। थोड़ा रुककर नेता जी ने कहा- ‘साहब! मंत्री जी से बात हो गई है।’ इतना सुनते ही साहब नेता जी पर पिल पड़े और सुरापात्र सहेजते हुए बोले- ‘क्यों झूठ बोलते हैं कि मंत्री जी से बात हो गई है। मैं अभी-अभी 20 लाख देखकर आ रहा हूँ।’ यह आज़मगढ़ के डीआईओएस श्रीमान डॉ वीके शर्मा की ईमानदारी का एक नमूना है।
उल्लेखनीय है कि उन्हीं दिनों लखनऊ के पार्करोड पर स्थित माध्यमिक शिक्षा निदेशालय के एक बड़े अधिकारी ने मुझसे अनौपचारिक वार्ता के दौरान कहा था कि ‘विनोद तो बहुत सीधा है?’ तब मैंने अपनी मन्द-मन्द मुस्कान के माध्यम से उन्हें अपना प्रतिउत्तर देते हुए कहा था कि ‘ नहीं, भाई साहब! ऐसा कुछ नहीं है। ‘ वह मेरे मनोभाव को समझ गये और कहे कि ‘वह वहाँ के बाबुओं के चंगुल में फंस गया है?’ बात आई और चली गई। दिन बीतते देर नहीं लगती है। इसप्रकार आज उनका , उस समय का कहना सत्य साबित हो गया है।
इसलिए टीईटी परीक्षा के लिए संदिग्ध परीक्षा केन्द्रों के निर्धारण में इस तथाकथित हरिश्चंद्र के औलाद की निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। क्योंकि आज़मगढ़ की प्रबुद्ध जनता व शिक्षाविद यह जनाना चाहती है कि इन्होंने कितने पैसे में परीक्षा केंद्रों को नीलाम किया था। क्योंकि इतने गंभीर प्रकरण पर आज़मगढ़ के डीआईओएस श्रीमान डॉ वीके शर्मा की खतरनाक खामोशी बहुत कुछ बयां कर रही है।
इनकी भी विशेष जाँच होनी चाहिए-

1- धर्मेन्द्र राय उर्फ बबलू राय-
आज़मगढ़ डीआईओएस ऑफिस के सर्वेसर्वा बाबू धर्मेंद्र राय उर्फ बबलू राय हैं। जो सांठ-गांठ करके खुद घूस देकर शिक्षा विभाग में नौकरी पाया है। इसके बाद घूसखोरी ही अपना पेशा बना लिया है। हमारे यहाँ देहात में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि एक घर तो डायन भी बख्श देती है, लेकिन बबलू बाबू शायद ही किसी को बख्शे हों। इसने पूरे जिले के शिक्षा माफियाओं के मानकविहीन विद्यालयों को परिषद एवं प्रतियोगी परीक्षाओं में केन्द्र बनाकर खूब मोटी रकम गाँठी और जिला विद्यालय निरीक्षक आज़मगढ़ की झोली भरी है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ये लोग विभागीय धौंस के सहारे अपने घर वालों जैसे- भाई, भतीजा, भांजा की नहीं अपने अर्धांगिनी की भी फर्जी नियुक्तियां करवाया हुआ है। बाबू जी तो अपनी ही मोहतरमा को शहर के एक बड़े नामचीन विद्यालय में शिक्षिका बना दिया है। पहले फर्जी व अवैध नियुक्ति फिर प्रबन्धक की मिलीभगत से माननीय उच्च न्यायालय को अंधकार में रखकर स्थाई नियुक्ति दिला दिया है।

2- सहर्ष राय उर्फ गोल्डी राय-
यह आज़मगढ़-सठियाँव मार्ग पर स्थित क्रॉस बेली स्कूल के प्रबन्धक हैं। इनके पिता सुनील राय समाज कल्याण विभाग के बहुत सुप्रसिद्ध बाबू हैं, जिनके भ्रष्टाचार की कमाई का नमूना या अंदाजा आप इनके विद्यालय की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं को देखकर लगा सकते हैं। बेचारे इतने मिलनसार हैं कि खुद मधुमेह ग्रस्त होते हुए भी दूसरे लोगों को मधुमेह के चपेट में लाने के लिए मोछूं की दुकान (पुलिस ऑफिस के पास) पर लेकर आते-जाते रहते हैं। इनके भी भ्रष्टाचार के कमाई की जाँच होनी चाहिए।
3- अन्य आरोपियों की भी-
यदि एक हो तो कोई बात नहीं, यहाँ तो कूपहिं में भाँग पड़ी है। इसलिए सभी के आय के ज्ञाताज्ञात श्रोतों की निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो। क्योंकि कालिया फिल्म में अमिताभ बच्चन एक डायलॉग बोलते हैं कि- ‘भाभी! मेहनत की कमाई से सिर्फ झोपड़ी बनाई जा सकती है, राजमहल नहीं।’
इस प्रकार इनके रैकेट को तभी ध्वस्त किया जा सकता है, जब भ्रष्टाचार के इस घिनौने खेल के खिलाड़ियों, मास्टरमाइंडों माफियाओं के सरगना डीआईओएस आज़मगढ़, उनके पालतू-पशुओं की सेवाएं व प्रबंधकों के विद्यालयों की मान्यताओं को तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जाय। अन्यथा कुछ भी नहीं होगा और ये दीमक धीरे-धीरे सब कुछ चाट जाएंगे। हमसब बस हिन्दू-मुस्लिम करते हुए इस जग से विदा हो जायेंगे। क्योंकि गौरतलब यह है कि इतने अपराधियों में सब 80 प्रतिशत वाले ही हैं। इसलिए यदि आज़मगढ़ की पुलिस अपनी इतनी ही उपलब्धि पर खुद की पीठ थपथपा के इतिश्री कर लेती है तो उसकी निष्पक्षता पर भविष्य में सवाल उठना लाजमी होगा।
-एम. सांकृत्यायन
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