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आज से ढाई हजार साल पहले यूनानी दार्शनिक सुकरात के सबसे प्रिय और सर्वश्रेष्ठ शिष्य प्लेटो ने आदर्श राज्य की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए कहा था कि-“राजा को दार्शनिक होना चाहिए या दार्शनिक को राजा होना चाहिए “। प्लेटो के इस दार्शनिक राजा के सिद्धांत को उसके शिष्य अरस्तू ने ही पूरी तरह खंडित-विखंडित कर दिया।
अरस्तू ने प्लेटों के दार्शनिक राजा के सिद्धांत को खंडित करते हुए बताया कि-एक व्यक्ति कितना भी बुद्धिमान, कुशाग्र और प्रतिभाशाली हो दस व्यक्तियों के समकक्ष नहीं हो सकता है। क्योंकि शारीरिक क्षमताओ की तरह हर मनुष्य की मानसिक क्षमताओं की भी सुनिश्चित सीमा होती हैं। दस मस्तिष्क द्वारा लिया गया निर्णय एक मस्तिष्क द्वारा लिए गए निर्णय से उत्तम और दोषरहित होता हैं। एक मस्तिष्क की अपेक्षा दस मस्तिष्क बहुआयामी दृष्टिकोण और व्यापक पहलू से किसी विषयवस्तु पर चिंतन-मनन करते हैं। जब दस मस्तिष्क अच्छी तरह तर्क-वितर्क और बहस-मुहासिबा कर निर्णय लेते हैं तो वह निर्णय अपेक्षाकृत सर्वग्राही, सर्वमान्य, दूरदर्शितापूर्ण, विवेकपूर्ण, त्रुटिरहित और कल्याणकारी होता हैं। इसके साथ ही साथ एक व्यक्ति में शासन संबंधी समस्त निर्णयकारी शक्तियां समाहित कर देने से भविष्य में शासक के अंदर निरकुंशता की प्रवृत्ति पनपने की सम्भावना बलवती हो जाती हैं। प्लेटो के दार्शनिक राजा के सिद्धांत के प्रतिवाद में अरस्तू द्वारा दिये गये उपरोक्त विचारों से ही पश्चिमी दुनिया में लोकतंत्र का बीजांकुर प्रस्फुटित हुआ। अरस्तू के विचारों में आधुनिक लोकतंत्र के दो अन्य आवश्यक तत्व विद्यमान थे पहला सहमतिओं और असहमतिओं के मध्य सामंजस्य और संतुलन स्थापित कर ही जनता का कल्याण सुनिश्चित किया जा सकता है, दूसरा अरस्तू के अनुसार लोकतंत्र में निर्णय अवश्य बहुमत के आधार पर होना चाहिए परन्तु अल्पमत के विचारों को भी महत्ता मिलनी चाहिए।
अरस्तू के लोकतंत्र संबंधी विचारों को संगठित और सुव्यवस्थित कर पश्चिमी दुनिया के राजनीतिक चिंतको ने संसदीय जनतंत्र को परिभाषित और विश्लेषित किया। कालांतर में जान लाॅक, जीन जैक्स रूसो, टामस जेफरसन, मांटेक्यू, वाल्तेयर और अब्राहम लिंकन जैसे राजनीतिक चिंतको के विचारों से अरस्तू के लोकतंत्र संबंधी विचारों का परिष्कार और परिमार्जन हुआ। विभिन्न पाश्चात्य राजनीतिक चिंतको के विचारों से लोकतंत्र सुव्यवस्थित रूप से परिभाषित और परिष्कृत होते हुए अंततः इंग्लैड में परिपूर्ण और परिपक्व संसदीय जनतंत्र के रूप में मूर्त रूप धारण कर लिया। इसलिए आधुनिक काल में इंग्लैंड को संसदीय जनतंत्र की जननी ( Mother of Parliamentary System) कहा जाता हैं। औपनिवेशिक प्रभाव और भारतीय राजनीतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए संसदीय जनतंत्र को भारतीय परम्पराओं और परिस्थितियों के अनुरूप ढाल कर हमारे महान संविधानविदो ने लम्बी चर्चा परिचर्चा और बहस के बाद स्वाधीन भारत में अपनाई जाने वाली शासन व्यवस्था के रूप में संसदीय जनतंत्र को स्वीकार किया। वर्तमान दौर में दुनिया में प्रचलित लगभग समस्त लोकतंत्रिक शासन प्रणालियों में यह बुनियादी सिद्धांत बन गया कि- निर्णय विवेकपूर्ण, तथ्य परक और तर्कपूर्ण बहस के उपरांत ही लिया जाना चाहिए। भारत के महान मनीषियों द्वारा संसदीय जनतंत्र को अकारण नहीं स्वीकार किया गया। भारत में सैद्धान्तिक और वैचारिक रूप से संसदीय जनतंत्र की जडे अत्यंत प्राचीन और गहरी हैं। यूनानी लोकतंत्रिक परम्परा के समानांतर भारत में भी लोकतंत्र के प्रमाण वैदिक काल से ही मिलते हैं। वैदिक काल में सभा, समिति और विदथ जैसी संस्थाओं का उल्लेख मिलता है जिसमें गम्भीर और खुली बहस के उपरांत ही शासन संबंधी निर्णय लिए जाते थे और नीतियां बनाई जाती थी। इसके अतिरिक्त महात्मा बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में भी संसदीय जनतंत्र के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। लगभग सभी महाजनपदों मे आम सभा में पर्याप्त बहस के उपरान्त ही निर्णय लिए जाते थे और नीतियां बनाई जाती थी। ऐतिहासिक परम्पराओं और भारतीय समाज की विविधता और बहुलतावादी सामाजिक बुनावट को ध्यान में रखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने समवेत स्वर संसदीय जनतंत्र को अंगीकार किया।
औपचारिक रूप से भारत में 1952 में होने प्रथम आम चुनाव के साथ संसदीय जनतंत्र का शुभारंभ हुआ। भारत दुनिया का सबसे विविधतापूर्ण देश है इसलिए देश के सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि बेहतरीन बहस द्वारा देश की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करेंगे। इस प्रथम आम निर्वाचन में वही विभूतियाँ सदन में निर्वाचित हुई जिन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान व्यक्तिगत जीवन में सचरित्रता, ईमानदारी, कर्मठ्ता, कर्तव्य परायणता को भारतीय राजनीति में जनता का प्रतिनिधित्व करने वालों की अनिवार्य योग्यता के रूप में स्वीकार किया। इन चारित्रिक विशेषताओं के साथ देश, समाज, राजनीति और विविध समस्याओं की व्यापक और बेहतर समझदारी रखने वाले ही 1952 में लोकसभा के लिए हुए प्रथम आम चुनाव में सर्वाधिक संख्या में निर्वाचित होकर पहुँचे।
कमोबेश यही स्थिति राज्यों की विधानसभाओ के लिए होने वाले प्रथम आम चुनाव में हुए। 1952 के आम निर्वाचन का गम्भीरता से विश्लेषण करने पर स्पष्टतः परिलक्षित होता है कि- इस प्रथम आम चुनाव में प्रायः शिक्षक, वकील, पत्रकार और अन्य बुद्धिजीवी पहुँचे जिन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान आम जनमानस को स्वतंत्रता, समानता, न्याय, अधिकार और कानून का अर्थ समझाया और इनके लिए लड़ना सिखाया। आज संसद में निर्वाचित होने वाले जनप्रतिनिधियों का विश्लेषण किया जाता हैं तो स्वच्छ और साफ सुथरी राजनीति में यकीन करने वाले हृदयो को गहरी पीड़ा होती हैं। जब भारत में उंगलियों पर गिनने योग्य पढ़े लिखे थे तो उस समय लोगों ने त्याग,तपस्या और बलिदान की प्रतिमूर्ति बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले और महात्मा गांधी को अपना लोक नायक माना। स्वाधीनता के समय भारत की साक्षरता दर बहुत कम थी उस समय भारत की अधिकतम निरक्षर जनता ने जाति, धर्म और क्षेत्र की संकीर्णताओं से उपर उठकर सामाजिक रूप से सक्रिय प्रबुद्ध वर्ग विशेष कर शिक्षकों, वकीलों और पत्रकारो को अपने जनप्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित किया।आज देश में नब्बे प्रतिशत से अधिक साक्षरता दर हैं तथा चाॅद पर कदम रखकर ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में हम चमत्कार कर रहे हैं परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण और विचारणीय तथ्य यह है कि-जैसे-जैसे देश में साक्षरता बढती जा रही तथा ज्ञान विज्ञान का क्षितिज बढता जा रहा हैं वैसे-वैसे संसद और विधानसभाओं में अनपढ़ों और कुपढो की संख्या निरंतर बढती जा रही हैं।
संसद की हर तरह की गतिविधियों में उत्तरोत्तर गिरावट आती जा रही है। यह गिरावट मात्रा, गुणवत्ता और विषयवस्तु की दृष्टि से देखने को मिल रही है। हमारे महान मनीषियों ने संसदीय जनतंत्र को इसलिए अंगीकार किया था कि- संसद में देश की समस्याओ और देश के समग्र और संतुलित विकास के लिए गम्भीरता से धारदार बहस होगी। तदुपरांत जनता के कल्याण के लिए शानदार नीतियां बनाई जायेगी। विगत दो दशकों से लम्बी-लम्बी चलने वाली बहसों का चलन-कलन लगभग समाप्त होता जा रहा है। अस्सी के दशक तक विविध विश्वविद्यालयों और देश के मशहूर महाविद्यालयों की छात्र राजनीति की कोख से निकलने वाले होनहार, प्रतिभाशाली, ऊर्जावान और बेहतर नेतृत्व का हुनर रखने वाले छात्र नेता ही संसद और विधानसभाओ में पहुँचते थे। लगभग अधिकांश राजनीतिक दलों की पसंद भी यही ऊर्जावान छात्र नेता हुआ करते थे। अपराधियों, बाहुबलियो और दौलतमंदो के बढते प्रभाव के कारण होनहार छात्र नेता धीरे-धीरे राजनीति में हाशिये पर आते गए। उर्जावान और होनहार छात्र नेता विश्वविद्यालयी शिक्षा का बेहतर इस्तेमाल करते हुए संसद और विधानसभाओ में पहुँच कर पूरी क्षमता और ईमानदारी से सार्थक सकारात्मक और रचनात्मक बहस करते थे।
आज सांसदो और विधायकों की सदन में उपस्थित का ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो स्थिति बहुत ही निराशाजनक नजर आती हैं। जो आते हैं उसमें कुछ सोते-उघांते नजर आते हैं। आज महज चंद मिनटों में दर्जनों विधेयक बिना बहस के पास कर दिए जाते हैं। जिस उद्देश्य और भावना के साथ संसदीय जनतंत्र को हमने अपनाया था वह उद्देश्य ओझल और भावना तिरोहित होती जा रही है। आज संसद और विधानसभाओ में गाली-गलौज एक दूसरे का मान मर्दन करने कार्य तेजी बढता जा रहा हैं। संसद और विधानसभाओ में होने वाली बहस का चरित्र और स्वरूप बदलता जा रहा है। विचारों, सिद्धांतों और नीतियों पर होने वाली बहस व्यक्तिगत दुश्मनी में परिवर्तित होती जा रही है। जनता के बुनियादी मुद्दो पर बहस देखने-सुनने के लिए लोग तरस जाते हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि-बेहतर बहस, चर्चा-परिचर्चा और तर्क-वितर्क के उपरांत ही जनता के लिए बेहतर नीतियां बनाई जा सकती हैं। जनता की बुनियादी समस्याओं और जरूरतों पर धारदार और शानदार बहस की परम्परा और परिपाटी को पुनर्जीवित कर ही हम संसदीय जनतंत्र की सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं और उपयोगिता बरकरार रख सकते हैं।
-मनोज कुमार सिंह
(लेखक : बापू स्मारक इण्टर कॉलेज दरगाह, मऊ में प्रवक्ता हैं। )