लखनऊ की टीलेवाली मस्जिद का विवाद

0Shares

 536 total views,  2 views today

अब टीलेवाली मस्जिद लखनऊ का मामला ज्ञानवापी मस्जिद बनारस के बाद चर्चा में है।कल जुमे की नमाज़ के दौरान बड़ी तादाद में मुसलमानों ने टीले वाली मस्जिद पहुँचकर जुमे की नमाज़ पढ़ी।मस्जिद में नमाज़ के बाद नमाज़ियों ने मुल्क में अमन समेत मस्जिदों की हिफ़ाज़त की दुआ मांगी।इस मौक़े पर भारी संख्या में पुलिस फ़ोर्स मौजूद रही, मीडिया का जमावड़ा रहा।टीले वाली मस्जिद लखनऊ पर हिंदू पक्ष द्वारा अदालत में दर्ज वाद पर निचली अदालत के आदेश के विरूद्ध सत्र न्यायालय में दाख़िल रिवीज़न अर्ज़ी पर सुनवाई तीस मई सन् दो हज़ार बाइस को होगी।हिंदू पक्ष का कहना है कि मस्जिद हटाकर क़ब्ज़ा हिंदुओं को दिया जाए।जहाँ मस्जिद बनी है वो और उसका पूरा परिसर मतलब कैंपस लक्ष्मण टीला है।यहाँ भगवान शेष नागेश टीलेश्वर महादेव का मंदिर था।यहाँ पर हिंदुओं को पूजा करने की इजाज़त दी जाए।
देखिए,हिंदूवादी संगठनों का ये दावा बहुत पुराना है। श्रीराम के भाई लक्ष्मण के नाम पर हिंदूवादी संगठन इसे लक्ष्मण टीला कहते हैं। उनका मानना है कि यहाँ शेष गुफ़ा थी। लक्ष्मण शेषनाग के अवतार हैं।उनका अनुसार यहाँ पहले जो स्थान था उसे ‘शेषतीर्थ’ कहा जाता था।माना जाता था कि यहाँ चढ़ाया प्रसाद सीधे शेषनाग के मुँह में जाता था।सुल्तान ख़िलजी के दौर में शेष गुफ़ा को तोड़ दिया गया।ये स्थान पुरातात्विक अवशेषों से भरा हुआ है,लिहाज़ा यहाँ खुदाई होनी चाहिए।मस्जिद उनके लक्ष्मण टीले पर बना ली गई है।जबकि मुस्लिम पक्ष उनके इस दावे से सहमत नहीं है।मुस्लिम पक्ष का मानना है कि टीले वाली मस्जिद किसी शेषतीर्थ को तोड़कर नहीं बनी।
बहरहाल,अब हम इस स्थान और टीले वाली मस्जिद का इतिहास बताते हैं।इससे अंदाज़ा लग जाएगा कि सच क्या हो सकता है।जहाँ पर टीले वाली मस्जिद है,ज़ाहिर है कि वो जगह एक ऊँचा टीला है।टीले के ऊपर ही मस्जिद बनी है।अब बताते हैं कि वहाँ टीला कहाँ से आया,किसने बनवाया।टीला तो मानव निर्मित है,मतलब इंसानों का बनाया हुआ है।दरअसल,राम के भाई लक्ष्मण के द्वारा इस स्थान को बसाने का उल्लेख इतिहास में कहीं नहीं मिलता कि लक्ष्मण कब यहाँ आए और ये स्थान बसाया।इतिहास में यहाँ पर लक्ष्मण के राज का नहीं बल्कि राजा लाखन के राज और राजा लाखन का वर्णन ज़रूर मिलता है।
ग्यारहवीं सदी के आसपास एक समय लाखन पासी नाम का एक राजा यहाँ पर राज करता था जहाँ आज लखनऊ है।कहते हैं कि राजा रहे ‘लाखन’ के नाम से ही इस जगह का नाम लखनऊ पड़ा।दूसरी एक बात इतिहास में है कि लाखन पासी की पत्नी का नाम लखनावती था,इसलिए उनके नाम से जगह का नाम लखनऊ पड़ा।लाखन पासी जिस जाति का था उस जाति का नाम ‘पासी ‘है।पासी जाति आजकल अनुसूचित जाति के अंतर्गत आती है,दलित जाति है।ये मूल निवासी जाति मानी जाती है।एक दौर में पासी जाति शासक जाति थी और गंगा-जमुना की उर्वर ज़मीन पर पासी जाति का वर्चस्व था।पासियों का अपना अलग समाज था,इनका आर्यों से कोई जुड़ाव नहीं था।पासी नाग की पूजा करते थे,नाग के उपासक थे,एक तरह से पासी जाति शक्ति का उपासक जातीय समूह था।
लखनऊ में गोमती नदी बहती है।बारिश के मौसम में गोमती नदी में बाढ़ भी आती है।लाखन पासी के राज्य का मुख्यालय नदी के किनारे ही था।लाखन पासी ने यहाँ जंगलों को कटवाकर क़रीब चौबीस हाथ ऊँचा,क़रीब एक मील लंबा और लगभग एक मील चौड़ा कोट बनवाया था।कोट मतलब कि ज़मीन से थोड़ा ऊपर मिट्टी को पाटकर बनाया गया स्थान होता है, कोट सामरिक रूप से मज़बूत माना जाता था, पुराने दौर में जगह-जगह कोट बनाकर क्षेत्रीय शासक राज करते थे।लाखन पासी ने अपनी राजधानी अपने बनवाए इसी कोट पर बनवायी थी।यहीं कोट पर उनके राज के मुख्य लोग निवास करते।लाखन पासी का कोट इतिहास और गज़ेटियर में वहाँ बताया जाता है जहाँ आज मेडिकल कॉलेज मतलब केजीएमयू है।संभव है कि जिस टीले पर टीले वाली मस्जिद बनी है,वो जगह भी कभी लाखन पासी के क़रीब एक मील लंबे और क़रीब एक मील चौड़े कोट का हिस्सा रही हो।टीले वाली मस्जिद गोमती नदी के किनारे है।एक तरह से देखा जाए तो लाखन पासी ने गोमती नदी से लेकर दूर तक कोट बाँधा।लाखन पासी की जंग सैय्यद हातिम के नेतृत्व में मुसलमानों से हुई।ये राज्य हासिल करने की जंग थी,ना कि किसी प्रकार का धर्म युद्ध था।लाखन पासी का युद्ध में सिर कट गया, जहाँ उनका सिर कटा उस जगह को सरकटा नाला कहा गया।ये युद्ध चौपटिया नामक स्थान पर हुआ था उसी के आसपास आज लखनऊ का अकबरी गेट है।जब लाखन पासी मुसलमानों से युद्ध में हारा तो मुसलमानों ने लाखन पासी की इस राजधानी पर क़ब्ज़ा कर लिया।क्योंकि वो जंग में जीत चुके थे।उस दौर में जो जंग जीत जाता वो हारे हुए राजा की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लेता।लाखन पासी की हार के बाद भी मुस्लिम विजेताओं ने इस जगह का नाम नहीं बदला।लाखन पासी के नाम से ही जगह का नाम लखनऊ रहने दिया।
जब लखनऊ मुसलमान शासकों के अधीन रहा तो लंबे समय तक यहाँ कोई बहुत बड़ी बस्ती नहीं थी। कुछ सूफ़ी पीर अपना स्थान बनाकर रहते थे। लखनऊ जब शेख़ज़ादों के अधीन आया तो लखनऊ ने थोड़ी उन्नति की।जब नवाबों ने फ़ैज़ाबाद से अपनी राजधानी बदलकर लखनऊ की तो लखनऊ फिर उन्नति करता गया।
अब टीले वाली मस्जिद की बात करते हैं कि मस्जिद कब बनी और इसका इतिहास क्या है।लाखन पासी तो ग्यारहवीं सदी में था।उसके राज्य और टीले पर सदियों तक दूसरों का क़ब्ज़ा रहा।वहाँ तमाम मानव बस्तियाँ बनीं और उजड़ीं।बड़े टीले का काफ़ी हिस्सा समतल हो गया।सदियाँ गुज़र गईं।टीले के छोटे से टुकड़े पर तो लाखन पासी के मरने के पाँच सौ साल से भी ज़्यादा बरस बाद वो मस्जिद बनी जिसे आज टीले वाली मस्जिद कहा जाता है।मस्जिद किसी मंदिर या स्थान को तोड़कर या उसके ऊपर बनी ऐसा कहीं समकालीन इतिहास में दर्ज नहीं है।अगर मस्जिद किसी स्थान को तोड़कर बनी होती तो ये दर्ज होता कि मस्जिद अमुक स्थान को तोड़कर बनी।
टीले वाली मस्जिद बादशाह औरंगज़ेब के दौर में बनी।तब इस मस्जिद का नाम ‘गुलाबी मस्जिद’ था।मस्जिद शान से खड़ी रही,यहाँ कोई विवाद नहीं था।टीले वाली मस्जिद मुसलमानों के सुन्नी संप्रदाय की मस्जिद है।मुग़लिया दौर की वास्तुकला पर आधारित है।यहाँ जुमा अलविदा और ईद की नमाज़ भी होती है।रोज़ पाँचों वक़्त नमाज़ होती है।जुमे के दिन मस्जिद में बहुत भीड़ होती है।बड़ी संख्या में नमाज़ी जुटते हैं।हमने डॉ.शारिक़ अहमद ख़ान ने ख़ुद अनगिनत बार टीले वाली मस्जिद में नमाज़ पढ़ी है।टीले वाली मस्जिद लखनऊ की बड़ी मस्जिद है,मशहूर मस्जिद है और शानदार मस्जिद है।मस्जिद के कैंपस में शाह पीर मोहम्मद की मज़ार भी है जहाँ दूर दूर से लोग ज़ियारत के लिए आते हैं।गुलाबी मस्जिद की जगह टीले वाली मस्जिद कब और कैसे कही जाने लगी इस बारे में इतिहास तो कुछ नहीं बताता लेकिन क्योंकि मस्जिद टीले पर ही बनी है इसलिए आम ज़बान में लोग इसे टीले वाली मस्जिद कहने लगे होंगे।
जब सन् अट्ठारह सौ सत्तावन में क्रांतिकारियों और अंग्रेज़ों से जंग हुई तो अंग्रेज़ों ने इस टीले वाली मस्जिद पर भी हमला कर दिया। जब पहली जंग-ए-अज़ीम में मतलब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लड़ने वाले हिंदोस्तान के क्रांतिकारी हारे तो अंग्रेज़ों ने टीले वाली मस्जिद पर क़ब्ज़ा जमा लिया।मस्जिद के परिसर में अंग्रेज़ अपने घोड़े बाँधने लगे।तब इसकी शिकायत राजा जहाँगीराबाद ने क्वीन विक्टोरिया के पास लंदन में भेजी कि हमारी मस्जिद में घोड़े बांधे जा रहे हैं, ये निहायत ही तकलीफ़ का विषय है, इस वजह से फिर से ग़दर हो सकता है, हम ब्रिटिश राज के ख़ैरख़्वाह हैं इसलिए आगाह कर रहे हैं, यहाँ के मुसलमानों में आक्रोश चरम पर है,किसी दिन भी हालात क़ाबू से बाहर हुआ चाहते हैं। राजा जहाँगीराबाद की शिकायत पढ़ क्वीन विक्टोरिया हैरान रह गईं। उन्होंने संबंधित अधिकारियों को आदेश दिया कि मस्जिद में जिसने घोड़े बाँधे हैं उसे सख़्त सज़ा दी जाए और मस्जिद को ख़ाली कराकर मुसलमानों के हवाले कर दिया जाए। हुक़्म की तामील हुई और मस्जिद को ख़ाली कराकर मुसलमानों के हवाले किया गया।
टीले वाली मस्जिद में मदरसा चलता था। इसी मस्जिद में चलने वाले मदरसे के मुसलमान शिक्षकों और छात्रों ने सन् अट्ठारह सौ सत्तावन में अंग्रेज़ों से जंग लड़कर हिंदोस्तान के लिए शहादत दी है।भारत को आज़ाद कराने के लिए फाँसी पायी है,दर्दनाक फाँसी मिली है।मस्जिद के कैंपस में फाँसी वाला पेड़ आज भी मौजूद है।ये इमली का पेड़ है।इतिहास में इन शहादतों की सुनहरी दास्तान लिखी हुई है।मस्जिद के परिसर के इमली के पेड़ पर सन् अट्ठारह सौ सत्तावन में चालीस मुसलमान क्रांतिकारियों को अंग्रेज़ों द्वारा फाँसी दी गई थी।इमली का ये पेड़ आज भी लखनऊ की टीले वाली मस्जिद के पीछे खड़ा है और सन् अट्ठारह सौ सत्तावन के शहीदों की हिंदोस्तान पर दी गई शहादत की याद दिलाता है।
हुआ ये कि जब सन् अट्ठारह सौ सत्तावन में अंग्रेज़ों ने टीले वाली मस्जिद पर कब्ज़ा जमाया तो मस्जिद के परिसर में एक मदरसा भी चलता था जिसके शिक्षक और छात्र भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग में शामिल थे और देश को आज़ाद कराना चाहते थे।अंग्रेज़ों ने मदरसे के शिक्षकों और छात्रों समेत कुल चालीस मुसलमान क्रांतिकारियों को पकड़ा और टीले वाली मस्जिद के परिसर में ले आए।यहाँ टीले वाली मस्जिद के पीछे स्थित इमली के पेड़ पर चालीस मुसलमान क्रांतिकारियों को फाँसी दे दी गई।उनको कच्ची फाँसी हुई थी।फाँसी दो तरह की होती थी,एक कच्ची और एक पक्की।पक्की फाँसी जेल में दी जाती थी और फाँसी चढ़ने वाले व्यक्ति की मौत होने के बाद उसे निकालकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता था,जबकि कच्ची फाँसी में बहुत ख़ौफ़नाक मौत दी जाती थी और लाशों को तब तक लटकने दिया जाता था जब तक लाशें ख़ुद से ना गिर जाएं।कच्ची फाँसी प्रजा में दहशत फैलाने के लिए दी जाती थी ताकि दूसरे लोग लटकती लाशों को देखें तो उनके अंदर अंग्रेज़ों से ख़ौफ़ पैदा हो।
जिन मुसलमानों को टीले वाली मस्जिद में कच्ची फाँसी दी गई उनमें मौलवी क़ासिम अली,रसूल बख़्श,मम्मू ख़ान,हाफ़िज़ अब्दुल समद और मीर अब्बास समेत अन्य पैंतीस मुसलमान क्रांतिकारी थे।आज के दौर में भी देश पर मुसलमानों की शहादत का गवाह इमली का पेड़ खड़ा है।आजकल इमली के इस पेड़ के नीचे मस्जिद का एक वज़ू ख़ाना भी है जहाँ नमाज़ पढ़ने से पहले मुसलमान इस्लामी विधि से हाथ-पैर आदि पानी से धोते हैं जिसे वुज़ू बनाना कहा जाता है।
टीले वाली मस्जिद गुलाबी मस्जिद के तौर पर औरंगज़ेब के ज़माने में बनी। मस्जिद में चलने वाले मदरसे के शिक्षकों और छात्रों ने हिंदोस्तान की आज़ादी के लिए शहादत दी। टीले वाली मस्जिद किसी हिंदू धर्म स्थल को तोड़कर या उसके ऊपर नहीं बनी। टीले वाली मस्जिद हिंदोस्तान की आज़ादी की जंग की गवाह है। इस मस्जिद के मदरसे के मुसलमानों ने शहादत दी तब देश को आज़ादी नसीब हुई है। हम माननीय कोर्ट के फ़ैसले का सम्मान करते हैं, हमें उम्मीद है कि न्यायालय से न्याय होगा, फ़ैसला मुस्लिम पक्ष और मस्जिद के पक्ष में होगा।टीले वाली शानदार मस्जिद सदियों से खड़ी है, सदियों से नमाज़ियों से गुलज़ार है और आने वाली सदियों में भी नमाज़ियों से गुलज़ार रहेगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *