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यह दौर भी एक अजीब दौर है! लोगों की समझ भले कुंद और संवेदनाएँ परुष, यानी कठोर हो गयी हों, लेकिन भावनाएँ अतिकोमल हो गयी हैं, बिलकुल छुईमुई-जैसी। कोई तनिक प्रतिकूल बोला नहीं कि बेचारी भावनाएँ तुरंत आहत हो जाती हैं। ऐसी घटनाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, क्योंकि सत्ता मौन और पुलिस अपनी कार्यवाही में अहर्निश तत्पर है। यह स्थिति दुःखद और चिंता का विषय तो है ही, चिंतन और विचार का विषय भी है, क्योंकि हमारा देश अत्यंत विशाल है और ‘विभिन्नता में एकता’ इसकी प्रमुख विशेषता है। इसकी एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिए इसके नागरिकों का सहिष्णु होना परमावश्यक है। सहिष्णुता समाज के स्वास्थ्य का परिचायक है, और भावनाओं का छुईमुई हो जाना सहिष्णुता के छीजने और अंततः समाज की रुग्णता का।
आइए, अपने देश की विशालता देखते हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह रूस, कनाडा, चीन, सं.रा.अमेरिका, ब्राजील और आस्ट्रेलिया के बाद सातवाँ सबसे बड़ा देश है। जनसंख्या की दृष्टि से यह चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश है। हमारे देश की वर्तमान जनसंख्या लगभग 140 करोड़ और चीन की लगभग 142 करोड़ है। जनसंख्या की दृष्टि से इनके बाद सं.राज्य अमेरिका दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है, जिसकी जनसंख्या लगभग 33 करोड़ है, जो हमारे देश की जनसंख्या की तुलना में लगभग एक अरब से भी अधिक कम है। राजनीति की दृष्टि से हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। भाषा, लिपि, भाषा-परिवार, धर्म, सम्प्रदाय, प्रजाति, आदि की दृष्टि से हमारे देश में व्यापक भिन्नता है। संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता प्राप्त 22 भाषाएँ हैं। बोलियाँ लगभग सवा दो सौ हैं। देवनागरी, ब्राह्मी, शारदा, तेलुगु, फारसी, रोमन, गुरुभुखी, गुजराती, उड़िया, बांग्ला, असमिया, कन्नड़, ओलचिकी, मणिपुरी, मैथिली, ब्रेल, आदि लिपियाँ यहाँ प्रचलित हैं। हिंद-आर्य, द्रविड़, ऑस्ट्रो-एशियायी, नाग (चीनी-तिब्बती), अण्डमानी, आदि भाषा-परिवारों की भाषाएँ यहाँ बोली जाती हैं। दुनिया के विभिन्न धर्मों और मतों के लोग हमारे देश में रहते हैं। कई मानव-प्रजातियों के लोग भी यहाँ निवास करते हैं।
ऐसे में इसके विभिन्न क्षेत्रों और समूहों के लोगों का खानपान, पहनावा, पर्व, परंपराएँ, रीति-रिवाज, पूजा-पद्धतियाँ, आदि भिन्न-भिन्न होना स्वाभाविक है। यह भी स्वाभाविक है कि उनकी जीवनशैलियाँ, दृष्टियाँ और विचार भी भिन्न-भिन्न हों। किसी समाज, संप्रदाय या क्षेत्र की विधि किसी दूसरे समाज, संप्रदाय या क्षेत्र का निषेध होती है। हज़ारों साल साथ रहने के कारण इन विभिन्नताओं के बावजूद इसके निवासियों में एक सहिष्णुता, एक सामंजस्य और एक सौहार्दपूर्ण वातावरण विकसित हुआ है। इसीलिए ‘विभिन्नता में एकता’ हमारे देश की प्रमुख विशिष्टता है।
आधुनिकाल के पूर्व तक दुनियाभर में धर्म मानवजीवन की सबसे बड़ी नियामक शक्ति था। यूरोप के सन्दर्भ में धर्म के प्रभुत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि वहाँ की शासन-सत्ता धर्म की मुखापेक्षी थी। हमारे यहाँ तो धर्म की भूमिका कुछ अधिक ही महत्त्वपूर्ण रही है, क्योंकि शासन-सत्ता के सक्रिय सहयोग के बिना उसने यहाँ के समाज को जकड़कर रखा था। धर्म, दर्शन, स्मृतियों और पुराणों ने यहाँ की अधिसंख्य जनता को अन्धविश्वासी, अशिक्षित, भाग्यवादी और नियतिवादी इसीलिए बनाया कि वे इतने कूपमण्डूक, निरीह और विवश हों कि अन्यायपूर्ण धार्मिक प्रावधानों और व्यवस्थाओं के विरुद्ध कुछ कर और सोच न सकें। धर्म और उसके प्रावधनों ने जाति और वर्ण के आधार पर भेदभाव और अन्याय का शिकार यहाँ की अधिसंख्य जनता से शस्त्र, शिक्षा और सम्पत्ति का अधिकार छीनकर उनके अभिशप्त जीवन को शाश्वत और नारकीय बना दिया था।
मानवविकास के वर्तमान दौर में आदिम प्रतिशोध के लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि इतिहास तो होता है, वह अच्छा या बुरा नहीं होता! भिन्न, विपरीत और विरुद्ध मत, विचार और दृष्टि के लोगों के मध्य पनपी यहाँ की यह सहिष्णुता, यह सामंजस्य और यह सौहार्द अत्यन्त मूल्यवान् है। बिना इसकी महत्ता समझे आजकल लोगों की कोमल भावनाएँ अपने से भिन्न, विपरीत और विरुद्ध मत, विचार और दृष्टि को सहन नहीं कर पातीं और आहत हो जाती है। आहत उनकी भावनाएँ होती हैं, जिनकी भावनाएँ स्वस्थ और जीवित हैं। लेकिन हमारा कर्तव्य है कि हम उनकी भावनाओं का भी ध्यान रखें, जिनकी भावनाएँ हज़ारों साल से धर्म और उसके कुटिल प्रावधानों के परिणामस्वरूप ‘हत’ हो चुकी हैं। आधुनिकयुग में उन ‘हत’ भावनाओंवाले लोगों और उनकी संततियों को पहले अंगरेज़ों ने और अब संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समता, न्याय, गरिमा, लैंगिक समानता, आदि अधिकार प्रदान किया है और वे शिक्षा ग्रहणकर आगे बढ़ रही हैं। वे धर्म के प्राचीन ग्रंथों की उन कहानियों, प्रसंगों और विचारों को प्रश्नांकित कर रही हैं, जो तर्क, सामान्य विवेक, वैज्ञानिक चिंतन, आदि के निकष में खरे नहीं उतर रहे हैं और हमारे संविधान की प्रस्तावना में व्यक्त आदर्शों और मंतव्यों के विपरीत हैं। यह प्रवृत्ति समाज के स्वस्थ विकास की द्योतक है और इसलिए स्वागतयोग्य है।
प्रतिकूल विचारों और बातों से भावनाएँ यदि इतनी ही आसानी से मध्यकाल में आहत होतीं, तो न यूरोपीय पुनर्जागरण (Renaissance in Europe) होता, न ही औद्योगिक क्रांति आती। अमेरिका और आस्ट्रेलिया की खोजें भी न होतीं। सूर्य अब भी पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा होता! ऐसे में अमेरिकी और फ़्रांसीसी क्रांतियों की कल्पना भी संभव नहीं थी और यदि ये क्रांतियों न होती, तो स्वतंत्रता, भ्रातृत्व और समता-जैसे उदात्त मानवमूल्य भी प्रकाश और प्रभाव में न आते! वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्क और विवेक का विकास न होता और धर्म की जकड़बंदी से जीवन मुक्त भी न हो पाता! चार्ल्स डार्विन की ‘जीवप्रजातियों का विकास’ (The Origin of species) न लिखी जाती और विकासवाद का सिद्धांत भी अस्तित्व में न आया होता! मानवजीवन में आधुनिकयुग की नयी चेतना और स्फूर्ति भी न आती! मानवेतिहास में अब भी अंधयुग के अँधेरे का अखंड साम्राज्य कायम होता!
हमारे देश में भी धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक आन्दोलन न होते! न भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय होते, न सती प्रथा, बाल विवाह, जातिवाद, कर्मवाद, आदि के विरोध का सूत्रपात होती और न पत्रकारिता का प्रारंभ ही। न ज्योतिबा फुले होते, न ‘गुलामगीरी’ लिखी गयी होती। न सावित्रीबाई फुले होती और न ही फातिमा शेख और न ही शिक्षा के लिए किये गये उनके कार्य ही होते। न अलीगढ़-क्रांति के प्रणेता सर सैयद अहमद खाँ होते, न रूढिवाद के विरुद्ध वैज्ञानिक शिक्षा के उनके प्रयत्न। न भगत सिंह होते और न ‘मैं नास्तिक क्यों’! न राहुल सांकृत्यायन होते और न उनके ग्रंथ ‘तुम्हारे धर्म का क्षय’ व ‘रामराज्य और मार्क्सवाद’! न इरोड वेंकट नायकर रामास्वामी ‘पेरियार’ होते, न ‘द रामायण : ए ट्रू रीडिंग’ और न ‘द्रविड़ कड़गम’! पेरियार की महानता का अनुमान इस बात से आसानी से लगाया सकता है कि साम्यवाद से लेकर दलित आंदोलन, तर्कवाद, मानवतावाद, नारीवाद, आदि चिंतनधाराओं के लोग उनका सम्मान ही नहीं करते, वरन् उन्हें अपने मार्गदर्शक के रूप में देखते है। अपने संबंध में उन्होंने स्वयं कहा है, “यद्यपि मैं पूरी तरह जाति को खत्म करने को समर्पित था; लेकिन जहाँ तक इस देश का संबंध है, उसका एकमात्र निहितार्थ था कि मैं ईश्वर, धर्म, शास्त्रों तथा ब्राह्मणवाद के खात्मे के लिए आन्दोलन करूँ। जाति का समूल नाश तभी संभव है, जब इन चारों का नाश हो। यदि इनमें से कोई एक भी बचता है, तब जाति का आमूल उच्छेद असंभव होगा….। क्योंकि, जाति की इमारत इन्हीं चारों पर टिकी है….केवल आदमी को गुलाम और मूर्ख बनाने के बाद ही, जाति को समाज पर थोपा जा सकता था। (लोगों में) ज्ञान और स्वाधीनता के प्रति जागरूकता पैदा किए बिना जाति का कोई भी खात्मा नहीं कर सकता। ईश्वर, धर्म, शास्त्र और ब्राह्मण लोगों में गुलामी और अज्ञानता की वृद्धि के लिए बनाए गए हैं। वे जाति व्यवस्था को मजबूती प्रदान करते हैं।’’ न ललई सिंह यादव होते और न ‘सच्ची रामायण’। न डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर होते और न उनका महत्त्वपूर्ण वाङ्मय। न रामस्वरूप वर्मा होते, न ‘अर्जक संघ’।
आज जिनकी भावनाएँ छुईमुई हुईं हैं, काश, वे अपने शास्त्रों और दसियों साल पहले लिखी किताबों के तथ्यों से परिचित होते! प्राचीन शास्त्रों की झलक के लिए यदि वे हरिमोहन झा लिखित ‘खट्टरकाका’ ही पढ़ लेते, तो शायद उनकी भावनाएँ इतनी जल्दी आहत न होती! राष्ट्रीय जागरण की प्रबोधन -धारा के अग्रधावक राधामोहन गोकुलजी की ‘ईश्वर का बहिष्कार’, भगवतशरण उपाध्याय की ‘खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर’, मुक्तिबोध की ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’, दूधनाथ सिंह की ‘आख़िरी क़लाम’, मुद्राराक्षस की ‘धर्मग्रंथों का पुन:पाठ, नूर जहीर की ‘अपना ख़ुदा क औरत’ आदि भी ऐसी ही पुस्तकें हैं, जो भावनाओं की अतिकोमलता के प्रभाव को दूर करती हैं। किसी प्रामाणिक जानकारी के अभाव में भावनाएँ आहत होने के लिए व्यक्ति ख़ुद जिम्मेदार है, न कि कोई अन्य। आहत होने से बचने के लिए लोगों को अध्ययन करना होगा और जानना होगा कि भावनाएँ आहत करनेवाली बातें और पुस्तकें आज से बहुत पहले ही पर्याप्त संख्या में लिखी जा चुकी हैं। दो उदाहरणों से यह बात आसानी से समझी जा सकती है। पुलिस विभाग में आने के पूर्व रक्तस्राव और विकृत लाशें देकर मुझे चक्कर आने लगता था, लेकिन पुलिस विभाग में आये दिन ये दृश्य देखते-देखते मेरी समस्या न जाने कब गायब हो गयी। इसी प्रकार मेडिकल के नवयुवा प्रारंभ में अतिसंवेदनशील होते है, बाद में उनकी यह अतिसंवेदनशीलता समाप्त हो जाती है। किसी भी ग्रंथ या व्यक्ति की बातें सभी पर सदैव एक-जैसा प्रभाव नहीं डालती। देश, काल और परिस्थितियाँ उनका प्रभाव और प्रासंगिकता तय करती है। भावी प्रगति के लिए वर्तमान से असंतोष, जो मानव का स्वाभाविक गुण है, आवश्यक है। संतुष्टि, ठहराव और असंतोष गति का कारण है। असंतोष और संदेह सत्य की तलाश और विकास के प्रारम्भिक मगर आवश्यक चरण हैं। असंतोष की अभिव्यक्ति को रोकना प्रगति और विकास को रोकना है।
आज ‘हत’ भावनावाले अगर उन प्रावधानों, बातों, तथ्यों, प्रसंगों और कहानियों को प्रश्नांकितकर रहे हैं, जो उनके अभिशप्त जीवन का कारण हैं, तो इसमें अस्वाभाविक क्या है!? अपने अपमान, कलंक और अभिशाप के प्रतिकार करने का सभी को अधिकार है। परंपरागत शास्त्रीय भाषा में मत्स्येंद्रनाथ के परकाया प्रवेश के बिना ‘हत’ भावनावालों का दर्द और पीड़ा समझना कोमल भावनावालों के लिए असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य है। सत्ता के प्रत्येक मोर्चे — विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता, पर कोमल भावनावालों का लगभग एकाधिकार है, ‘हत’ भावनावालों का प्रतिनिधित्व अत्यधिक कम है।
कोमल भावनावाले कुछ आस्थावान् जाति और वर्ण को श्रमविभाजन मान लेते हैं, लेकिन वस्तुस्थिति इससे भिन्न है, क्योंकि यह एक ऐसा अनुक्रम है, जिसमें श्रम के विभाजन को एक के ऊपर एक रखा गया है। श्रमविभाजन में श्रमिक इस प्रकार श्रेणीबद्ध नहीं होते। यह श्रमविभाजन न तो स्वैच्छिक है और न स्वाभाविक या प्राकृतिक। व्यक्ति की रुचि और मनोभाव से इस विभाजन का कोई संबंध नहीं है। इसका आधार प्राकृतिक योग्यता नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से अपना पेशा नहीं चुन सकता। यह विभाजन नियतिवाद और भाग्यवाद की रूढ़ि पर आधारित है। साथ ही सभी पेशे सम्मान और प्रतिष्ठा की दृष्टि से एक समान बिलकुल नहीं हैं। हमारे यहाँ ऐसे पेशे है, जिन्हें हमारा समाज तुच्छ और हीन समझता है और उन पेशों को करनेवालों से घृणा करता है। घृणा, तिरस्कार और कलंक के कार्यों को करने के लिए न दिल तैयार होता है और न दिमाग़। यह विभाजन माता-पिता से तय होता है, जो एक जैविक घटना मात्र है।
आजकल किसी की भावनाओं के आहत होते ही पुलिस का तत्काल अभियोग पंजीकृत करना भी अचम्भित करता है! पुलिस अभियोग लिखने में टालमटोल के लिए बदनाम रही है और आज भी है। लेकिन कोमल भावनाओं के आहत होने के मामलों में उसकी संवेदनशीलता, सक्रियता और तत्परता अद्भुत है! यदि ‘हत’ भावनावाला कोई व्यक्ति पुलिस के पास जाए और धर्म की असंवैधानिक, अन्यायपूर्ण, अपमानजनक बातों के उद्धरण देनेवालों के विरुद्ध अभियोग पंजीकृत कराना चाहे, तो क्या पुलिस उतनी ही सहजता से अभियोग पंजीकृत करेगी, जितनी सहजता से वह कोमल भावनावालों का अभियोग पंजीकृत करती है!? काश, हमारी पुलिस सत्ता की मुखापेक्षी न होकर तटस्थ होती और सांवैधानिक आदर्शों व मंतव्यों के संरक्षण के लिए अपना विवेक दृढ़ता से प्रयोग नहीं करती! आज के समय में इस तरह के परिवेश और परिस्थितियाँ एक संवेदनशील- चिंतनशील मनुष्य को गहराई से सोचने के लिए बाध्य करती हैं! (लेखक : से. नि. आईपीएस अधिकारी हैं, वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं।)
-अशोककुमार वर्मा