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“महात्मा गांधी ने बद्री अहीर को विशाल हृदय का विश्वासी और चरित्रवान हिंदुस्तानी कहा |”
कौन थे बद्री अहीर
बद्री अहीर शाहाबाद के हेतमपुर गांव के रहने वाले थे। हेतमपुर गांव कुंवर सिंह के प्रसिद्ध गांव जगदीशपुर थाने में पड़ता है। जुलाई 1882 बद्री गिरमिटिया मजदूर के रूप में नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) पहुंच गये। वे 1882 में “मर्चेन्टमैन” नामक जहाज पर कलकत्ता से नेटाल के लिए रवाना हुए। बद्री के पिताजी का नाम शिव नारायण था। 1882 में उनकी उम्र 22 साल थी। वे नेटाल में उमहलंगा वैली नेटाल सुगर कंपनी में काम करने लगे। नेटाल क्वाजुलु-नेटाल आर्काइव्स में बद्री के कलकत्ता से जाने संबंधी पूरा ब्यौरा उपलब्ध है। उनका कोलोनियल नंबर 27572 था। जाति के खाने में अहीर लिखा है। यह भी लिखा है कि उनकी लंबाई 168 सेंटीमीटर थी ( श्रोत- नेटाल क्वाजुलु – नेटाल आर्काइन्स)। उनकी पत्नी का नाम फुलमनिया था। ( संपूर्ण गांधी वाड्मय खंड 6,नं.440 पृष्ठ संख्या 436)
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर होने वाले जुल्म के खिलाफ जब महात्मा गांधी ने आंदोलन शुरू किया तो बद्री उनके साथ आये। महात्मा गाधी बद्री के एटॉर्नी (वकील) थे। बद्री का महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के साथ ही संपर्क हो गया। महात्मा गांधी ने भी खुद बद्री के बारे में लिखा है- ” यह मुवक्किल विशाल हृदय का विश्वासी था। वह पहले गिरमिट के रूप में आया था। उसका नाम बद्री था। उसने सत्याग्रह में बड़ा हिस्सा लिया था। वह जेल भी भुगत आया था। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आंदोलन में 1913 में गिरफ्तार किये जाने वाले नेटाल के रहने वाले सबसे पुराने गिरमिटिया बद्री थे। उन्हें 25 सितम्बर 1913 को तीन महीने की कारावास हुई थी। गिरफ्तारी के समय बद्री गांधी के साथ थे।
(स्रोत: Representing Indian toilersin Natal: Some explorations with Gandhi by Anil Nauriya, Natallia 46 (2016), Natal Society Foundation. 2016)
महात्मा गांधी को हजार पौंड देने वाला बिहारी
महात्मा गांधी को जोहांसबर्ग में निरामिषाहारी भोजनालय के लिए पैसे की जरूरत पड़ी ,तो महात्मा गांधी ने बद्री को ही याद किया। उस समय महात्मा गांधी के पास उनके बहुतेरे मुवक्किलो के पैसे जमा रहते थे। एक दिन उन्होंने बद्री को यह बात बतायी , तो महात्मा गांधी से बद्री ने कहा- भाई आपका दिल चाहे तो पैसा दे दो। मैं कुछ नहीं जानता । मैं तो आपको ही जानता हूं। बद्री के पैसे में से गांधी ने हजार पौंड दे दिये। महात्मा गांधी ने बद्री के बारे में लिखा है- उसने सत्याग्रह में हिस्सा लिया था। जेल भी काटी थी। इतनी संपत्ति पाकर मैंने उसके रुपये उधार दिये। दो-तीन महीने में ही मुझे मालूम हो गया कि ये रुपये वापस नहीं मिलने थे। इतनी बड़ी रकम डुबा देने की शक्ति मुझमें नहीं थी। मेरे पास दूसरे काम थे, जिनमें इस पैसे को लगा सकता था। पैसा वापस नहीं आया, पर विश्वासी बद्री का पैसा कैसे जा सकता था? उसने तो हमें ही जाना था। यह रकम मैंने भर दी।
महात्मा गांधी ने लिखा है- एक मुवक्किल दोस्त से मैंने इस लेन-देन की बात कही। उसने मुझे मीठा उलाहना देकर सावधान किया- “भाई, (दक्षिण अफ्रीका में मैं ‘महात्मा’ नहीं बना था ‘बापू’ भी नहीं हुआ था. मुवक्किल दोस्त मुझे भाई कहकर ही पुकारते थे।) यह काम आपका नहीं है। हम तो आपके विश्वास पर चलने वाले हैं। यह पैसा आपको वापस नहीं मिलने वाला है। बद्री को तो आप बचा लेंगे और अपना डुबा देंगे, पर इस प्रकार सुधार के कामों में सब मुवक्किलों के पैसे देने लग जाइयेगा, तो मुवक्किल मर जायेंगे और भिखमंगे बनकर घर बैठेंगे। इससे आपके सार्वजनिक काम को धक्का लगेगा। बद्री का पैसा तो मैंने चुकता कर दिया। ( श्रोत- सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा पृष्ठ सं 175 – 176 सस्ता साहित्य मंडल )
दक्षिण अफ्रीका में गांधी ‘भाई’ और बद्री
बद्री ने महात्मा गांधी को हजार पाँड देते हुए ‘भाई’ कहकर संबोधित किया था। दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी को सभी लोग ‘भाई’ ही कहते थे। महात्मा गांधी ने बद्री की चर्चा चरित्रवान हिन्दुस्तानी के रूप में की है। महात्मा गांधी ने लिखा है- “मुवक्किलों की तो मेरे पास भीड ही लगी रहती थी। इनमें से लगभग सभी उत्तर बिहार इत्यादि से और दक्षिण के तमिल, तेलुगु प्रदेश से पहले गिरमिट में आये हुए भारतीय थे और जो पीछे मुक्त होकर स्वतंत्र व्यवसाय करने लगे थे। इन लोगों ने अपने विशेष कष्टों को दूर करने के लिए स्वतंत्र भारतीय व्यापारी वर्ग के मंडल से अलग एक मंडल की स्थापना की थी।
“मंडल में कुछ बहुत सच्चे दिल के उदार भावना वाले और चरित्रवान भारतीय भी थे। उनके अध्यक्ष का नाम जयराम सिंह था और अध्यक्ष न होते हुए भी अध्यक्ष के समान ही दूसरे सज्जन थे श्री बद्री । दोनों का स्वर्गवास हो चुका है। दोनों से मुझे बड़ी मदद मिली थी। श्री बद्री से तो मेरा बहुत काम पड़ा था और उन्होंने सत्याग्रह में प्रमुख रूप से भाग लिया था। बद्री और ऐसे ही दूसरे भाईयों के जरिये मेरा उत्तर-दक्षिण के बहुसंख्यक भारतीयों से बहुत निकट का संबंध जुड़ा और मैं उनका वकील ही नहीं बल्कि भाई बनकर रहा और उनके तीनों प्रकार के दुःखों में मैं हिस्सेदार बना। सेठ अब्दुल्ला ने मुझे ‘गांधी’ कहने से इनकार किया और ‘साहब’ तो मुझे कहता और मानता ही कौन? उन्होंने अतिशय प्रिय नाम खोज निकाला। मुझे वह ‘भाई’ कहकर पुकारने लगे। वह नाम दक्षिण अफ्रीका में अंत तक रहा। पर इन गिरमिट मुक्त हिंदियों के मुझे ‘भाई’ कहकर बुलाने में मेरे लिए खास मिठास थी। ( श्रोत- सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा पृष्ठ 190,सस्ता साहित्य मंडल)
कुली टोला मे बद्री अहीर और महात्मा गांधी जी
दुनिया के सभी उपनिवेशों में भारतीय प्रवासी ‘कुली’ कहलाते थे। कुली टोला हिन्दुस्तानियों से ठसाठस भरा था। आबादी बढ़ती जा रही थी। जयराम और बद्री उसी बस्ती में रहते थे। उस बस्ती के अच्छे-बुरे सभी लोगों से उनका सम्बन्ध था। वे लोग सबके काम आते थे। उन दोनों के नेतृत्व में बस्ती के लोगों ने तय किया कि गांधी भाई को अपना वकील बनाएं और लड़ाई को आगे बढ़ाएं। दोनों | मूलतः गिरमिटिया ही थे। लेकिन, अब गिरमिट से छूट गये थे। उन्होंने जाकर मोहनदास को पूरी स्थिति बतायी कागज दिखाये और कहा आप हमारे वकील बनकर हमारी नाव पार लगाए । मोहनदास तैयार हो गये। वे बोले, “हमलोग बहुत गरीब हैं आप फीस बता दें।” मोहनदास ने हंसकर कहा “कोई फीस नहीं।” वे मिन्नते करने लगे तो मोहनदास ने कहा, “अगर तुम लोग जीत गये, जिसकी मुझे पूरी उम्मीद है तो जो फीस अदालत दिलवाएगी वह मेरे लिए काफी है।” “अगर हार गये?” मोहनदास ने कहा, “तो दस पौंड फी पट्टा, उसमें मुकदमे का खर्च भी शामिल हो।” फिर बोले, “जो फीस आप लोगों से मुझे मिलेगी उसका आधा हिस्सा अस्पताल बनवाने में या गरीबों की भलाई के लिए कोई संस्था बनाने में खर्च होगा।”
वे लोग आश्चर्य से मोहनदास की तरफ देखने लगे। उनके चेहरे पर पहले अविश्वास उभरा फिर आश्चर्य और उसके बाद प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। मोहनदास कुछ नहीं बोले । कुल मिलाकर मोहनदास के पास सत्तर मामले थे। सबने मिलकर एक एसोसिएशन बना लिया था। बद्री ही उन सब मामलों को देखता और पैरवी करता था। उनमें ज्यादातर लोग गिरमिटिया थे या गिरमिट से छूटे हुए थे। या तो वे बिहार और उसके आसपास के रहनेवाले थे या दक्षिण भारतीय थे। उनमें बद्री बहुत मानवीय था और सबके बदले की भागदौड़ खुद करता था। उसी बीच वह मोहनदास के काफी नजदीक आ गया था। उनकी हर बात उसके लिए पत्थर की लकीर हो गयी थी।
( श्रोत-गिरिराज किशोर, पहला गिरमिटिया, भारतीय ज्ञानपीठ पृ.566-568)
जब गांधीजी ने बद्री अहीर के लिए तैयार की बंडी
महात्मा गांधी बद्री के साथ किस गहरे हद तक जुड़े हुए थे और उनका अपनापन विकसित हुआ था. यह इसी बात से पता चलता है कि महात्मा गांधी ने खुद अपने हाथों से एक जैकेट (बंडी) तैयार किया था और उसे बहुत सहेजकर रखा था। इसका पता इस बात से चलता है कि महात्मा गांधी ने अपने पुत्र छगनलाल को 25 सितम्बर 1913 को एक पत्र भेजा और उसके अंत में इस जैकेट का जिक्र किया- “एक बंडी मैंने तैयार की है, जिसे तुम पोलक को दे देना। वह बंडी बद्री के लिए है। (स्रोत कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, बॉलयूम-12. पृ. 210-211) [PS.] If the children cannot manage to write 300 addresses this time, you should try and help them to complete them on Sunday or Monday. You will find there a jacket made by me for Budrea¹; this is to be sent on to Polak.
अक्खड़ बिहारी थे बद्री अहीर
डरबन निवासी प्रो बैरी बद्री, बद्री अहीर के पौत्र हैं। उन्होंने बताया कि उनके आजा (भोजपुरी में अभी भी ये पितामह को आजा कहते हैं बिहार में दादा शब्द प्रचलित है।) गिरमिट में गये थे। गिरमिट मुक्त होने के बाद वे ट्रांसपोर्ट ऑपरेटर का काम करने लगे। उन्होंने डरबन से जोहासबर्ग के बीच लंबे समय तक काम किया। बाद में वे व्यापार करने लगे। उसी दौर में महात्मा गांधी से उनका सपर्क हुआ। वे अक्खड़ स्वभाव के बिहारी थे। उन्होंने गांधीजी के साथ लंबा समय बिताया और जब जरूरत पड़ी उनकी मदद की, जेल भी गये। अपने पुत्र को उन्होंने महात्मा गांधी के टाल्सटाय फार्म स्कूल में शिक्षा-दीक्षा दिलायी। गांधी जी के साथ बद्री के रिश्तों के बारे में इससे भी पता चलता है कि 1904 से 1907 के बीच जो भी लेन देन हुआ उसका ब्यौरा भी उन्होंने भेजा है। वे बहुत ही मिलनसार व्यक्ति थे।
( श्रोत- प्रो0 बैरी बद्री से 26.09.2021 को यादवेंद्र की हुई बातचीत )
इंडियन ओपिनियन में बद्री के संघर्ष की गाथा
गांधी के साथ अभियान में वोल्क्सरस्ट (Volksrust) तक मार्च करने वाले चार लोग पैसिव रेसिस्टर्स (अहिंसक प्रतिरोधक) 25 सितम्बर 1913 तारीख को गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें 30 सितम्बर को वहां से डीपोर्ट कर दिया गया। उन्होंने फिर से निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया और दुबारा गिरफ्तार किये गये। इस जुर्म के लिए उन्हें इमीग्रेशन एक्ट के तहत कोर्ट ने 3 महीने की सश्रम सजा सुनाई। मिस्टर बद्री साउथ अफ्रीका में सबसे लंबे समय से रहने वाले भारतीयों में से एक हैं। मूल रूप से बिहार से आए हैं और स्थानीय लोग उन्हें कलकत्ता मैन के रूप में जानते हैं। लगभग 32 साल पहले वे गिरमिटिया मजदूर के रूप में आए थे और फीनिक्स में सर हेनरी बिन्स के यहां काम करते रहे। अपना कॉन्ट्रैक्ट पूरा करने के बाद उन्होंने अपना स्वतंत्र काम शुरू किया। बाद में ट्रांसवाल जाकर बस गए। वहा उन्होंने न सिर्फ अच्छी खासी संपत्ति अर्जित की बल्कि भारतीयों के बीच उन्होंने काफी प्रतिष्ठा भी अर्जित की और अपने देशवासियों की मदद के लिए हरदम आगे बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते रहे। वे तत्कालीन ट्रासवाल इंडियन एसोसिएशन के उपाध्यक्ष रहे और 1903 में प्रिटोरिया जाकर मिस्टर चैम्बरलेन से मिलने वाले भारतीयों के प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य भी थे। (जोसेफ चैंबरलेन ब्रिटेन में लॉर्ड सैलिसबरी की कैबिनेट में कॉलोनियल सेक्रेटरी (ब्रिटिश उपनिवेशों का मंत्री) था, जिसे दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश गोरों की सरकार बनाने का मुख्य योजनाकार माना जाता है। उसने 26 दिसंबर, 1902 से 25 फरवरी, 1903 तक दक्षिण अफ्रीका की यात्रा की। इस अवधि में वह 29 शहरों में 84 प्रतिनिधि मंडलों से मिला। बद्री उन्हीं में से एक प्रतिनिधि मंडल के सदस्य थे।) उनके बेटे शिवपूजन फीनिक्स स्कूल (टॉलस्टॉय फार्म स्कूल का एक हिस्सा) के छात्र थे और सोलह सदस्यों के पैसिव रेसिस्टर्स के अगुआ दस्ते के सदस्य थे। (स्रोत: इंडियन ओपिनियन, 8 अक्टूबर, 1913)
जब बद्री जेल में बीमार हुए
बीमार पड़ने पर उन्हें जेल अस्पताल में रखा गया था। जेल अस्पताल का डॉक्टर बार-बार उनको भगा देता था और कहता था कि तुम्हें कोई बीमारी नहीं है। उस समय बिहार के भवानी दयाल सन्यासी भी उसी जेल में थे। भवानी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है उसी समय वयोवृद्ध बद्री बीमार होकर अस्पताल आए। डॉक्टर ने उन्हें देखा और निरोग कहकर काम पर लौटा दिया। दूसरे दिन वे फिर आए और डॉक्टर की फटकार सुनकर चले गए। तीसरे दिन मित्रों की प्रेरणा से फिर पहुंचे। इस बार मैंने उनके समीप जाकर इस आवागमन का कारण पूछा। उनकी आखों में आंसू भर आए और उन्होंने बड़े दुख से कहा- मैं बीमार हूं। मेरे पेट में असह्य पीड़ा है। वैद्यों के आदेशानुसार मै घर पर केवल दूध-भात खाता था, पर यहां जेल के भोजन ने मेरी अतड़ियों को बिलकुल खराब कर दिया है उस पर डॉक्टर का यह ठपका कि तुम बीमारी का बहाना बनाते हो मुझे बहुत अखरता है। आज दोस्तों के दबाव से अंतिम बार आया हूं। यदि आज मेरे स्वास्थ्य पर ध्यान न दिया गया तो चाहे मर भले ही जाऊ पर इस डॉक्टर के निकट फिर न आऊंगा। मैंने कहा- आप ठहरिए और डॉक्टर को आने दीजिए। आज मैं उससे बात करूंगा। डॉक्टर के आने पर मैंने बद्रीराम की अवस्था पर ध्यान देने के लिए बलपूर्वक अनुरोध किया। मेरी वकालत काम कर गई और बद्रीराम अस्पताल में दाखिल कर लिए गए।” ( श्रोत- भवानी दायाल सन्यासी दक्षिण अफ्रीका के मेरे अनुभव, चाद कार्यालय 28 एलिगन रोड इलाहाबाद पृ. 162-163)
बेटा शिवपूजन बद्री भी सत्याग्रही
बद्री के पुत्र (दत्तक पुत्र) जो फीनिक्स स्कूल के छात्र थे सितम्बर 1913 में गिरफ्तार हुये थे। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के फीनिक्स में सत्याग्रह के दौरान जिन 16 महत्वपूर्ण सत्याग्रहियों का उल्लेख गोखले को लिखे अपने पत्र में किया है, उन 16 सत्याग्रहियों में एकमात्र बिहारी आदमी बद्री का बेटा शिवपूजन बद्री था। यह सभी 16 सत्याग्रही दुबारा जेल जाने के लिये तैयार हो गये थे। महात्मा गांधी ने अपने दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास नामक किताब में उन 16 सदस्यों का उल्लेख किया है। वे थे-
1- सौ.कस्तूरबाई मोहनदास गांधी
2- सौ.जयाकुवर मणिलाल डॉक्टर
3- सौ.काशी छगनलाल गांधी
4- सौ.संतोक मगनलाल गांधी
5- श्री पारसी रुस्तमजी जीवणजी घोरखोदु 6- श्री छगनलाल खुशालचंद गांधी
7 -श्री रावजीभाई मणिभाई पटेल
8- श्री मगनभाई हरिभाई पटेल
9 -श्री सोलोमन रॉयपेन
10 -भाई रामदास मोहनदास गांधी,
11 -भाई राजु गोविन्दु,
12- भाई शिवपूजन बद्री,
13.- भाई गोविन्द राजुलु
14- कुप्पुस्वामी मुदलियार
15 -भाई गोकलदास हंसराज
16- भाई रेवाशंकर रतनशी सोढा
( श्रोत- 1- Representing Indian toilersin Natal: Some explorations with Gandhi by Anil Nauriya, Natallia 46 (2016). Natal Society Foundation, 2016. 2 गांधीजी ,दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास ,नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, 1968 पृ. 318-319)
एकमात्र बिहारी महिला जगरानी
दक्षिण अफ्रीका में केंप के सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ने 14 मार्च 1913 को यह निर्णय दिया कि दक्षिण अफ्रीका में ईसाई धर्म के अनुसार हुए विवाह के सिवा किसी दूसरे धर्मावलंबियों के विवाह के लिए कोई स्थान नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हिन्दू, मुस्लिम पारसी आदि धर्मों की विधि के अनुसार हुए विवाहों को दक्षिण अफ्रीका के कानून के अंतर्गत मान्यता नहीं दी गयी। इसके खिलाफ जब आदोलन शुरू हुआ तो महात्मा गांधी ने सत्याग्रह में शामिल होने वाले लोगों की पत्नियों से बातचीत की और टॉल्सटॉय फार्म में रहने वाली महिलाओं को बुलाया। उन्होंने पहले उन महिलाओं को सत्याग्रह की लड़ाई में भाग लेने के खतरों से परिचय कराया। उसकी एक सूची तैयार की उन 11 महिलाओं में सिर्फ एक महिला बिहार की थी। उन महिलाओं के नाम निम्न थे…
1- श्रीमती थबी नायडू
2 -श्रीमती एन. पिल्ले
3 -श्रीमती के.मुरगेसा पिल्ले
4 -श्रीमती ए पी. नायडू
5- श्रीमती पी के नायडू
6- श्रीमती के चिन्नस्वामी पिल्ले
7- श्रीमती एन.एस. पिलले
8- श्रीमती आर ए मुदलिंगम,
9- श्रीमती भवानी दयाल,
10- कुमारी एम. पिल्ले
11- कुमारी बी. एम. पिल्ले
( श्रोत -गांधीजी, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद 1968 पृष्ठ संख्या.315)
महात्मा गांधी ने अपनी किताब में 9 नंबर की महिला का नाम उल्लेख नहीं किया है। श्रीमती भवानी दयाल लिखा है। उस महिला का नाम जगरानी देवी था और वह दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्ध नेता भवानी दयाल सन्यासी की पत्नी थी जो वर्तमान में बिहार के रोहतास जिले के बहुआरा गांव के रहने वाले थे। उनके पिता जयराम सिंह गिरमिट में गये थे। इसकी चर्चा भी गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में की है। भवानी दयाल सन्यासी भी दक्षिण अफ्रीका के आंदोलन के साथ बिहार में आजादी की लड़ाई में शामिल हुये। उन्होंने कई किताबें लिखी। दक्षिण अफ्रीका की जेलों के साथ बिहार में चल रहे आजादी की लड़ाई के दौरान आरा और हजारीबाग जेल में भी रहे।
महात्मा गांधी- जगरानी संवाद
महात्मा गांधी ने जगरानी से पूछा कि-कहों क्योंकर आना हुआ? जगरानी ने कहा- जेल जाने की इच्छा है। महात्मा जी मुस्कुराकर बोले- अहा, यह तो अच्छी बात है। पर तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि जेल में बड़े-बड़े कष्ट उठाने पडेंगे। ऐसा न हो कि तुम तकलीफ से घबरा उठो और फिर यह कहो कि मैं अपने मन से नहीं गांधी के कहने से इस मुसीबत में पड़ गई। जगरानी- मैं सब तरह की तकलीफ उठाने को तैयार हू और खूब सोच-समझकर ही आपके पास आई हूं। महात्मा ने जगरानी की साड़ी की ओर संकेत करके कहा जेल में ऐसी रंगीन रेशमी साडी पहनने को नहीं मिलेगी। जगरानी ने कहा. जेल में मोटे वस्त्र को ही मैं रेशम और मखमल मानकर धारण करूंगी। महात्मा जी -और वहां स्वादिष्ट भोजन भी तो नहीं मिलेगा। देशियो (हवशियों) की खुराक ‘पूपू’ खाना पडेगा। जगरानी के जवाब को सुनकर महात्मा गांधी ने कहा बहुत ठीक। अब मैं तुम्हें सत्याग्रह की सेना में भर्ती होने की आज्ञा देता हूं। जाओ अपने हक के लिए लड़ो। (स्रोत -भवानी दयाल सन्यासी, दक्षिण अफ्रीका में मेरे अनुभव, चांद कार्यालय 28 एलिगन रोड, इलाहाबाद, पृ. 93-94 )
चंपारण भी पहुंचे बद्री अहीर
महात्मा गांधी ने जब 1917 में चंपारण में निलहों के खिलाफ सत्याग्रह शुरू किया, तब दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले बद्री अपने को रोक नहीं सके और वे चंपारण पहुंच गये। महात्मा गांधी ने 26 जुलाई 1917 को मोतिहारी में इरविन की गवाही ली। इरविन मोतिहारी कोठी का मालिक था। उसे देखने के लिये भारी भीड़ जमा हुई थी। बद्री 26 जुलाई 1917 को गांधीजी के साथ मोतिहारी में थे| प्रताप ने 20 अगस्त 1917 के अंक में यह लिखा है कि आज केवल मि इरविन की गवाही 1 बजे तक हुई। आज 4 बजे की ट्रेन से महात्मा और उनके साथी बेतिया गये। महात्मा के साथ श्रीयुक्त बद्री भी थे, जो दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह की लड़ाई में शामिल थे। (स्रोत प्रताप 20 अगस्त 1917)
बद्री के बारे में चंपारण के एस.पी. ने भी शाहाबाद के तत्कालीन एस.पी. को यह लिखा कि दक्षिण अफ्रीका से बद्री अहीर यहां आया है। वह दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के साथ था। उसकी गतिविधियों के बारे में वह रिपोर्ट भेजे । ( श्रोत: चंपारण के पुलिस अधीक्षक की रिपोर्ट, 1 अगस्त, 1917, नं. 155, बी.बी. मिश्रा, सेलेक्ट डॉक्यूमेंट्स ऑन महात्मा गांधीज मूवमेंट इन चंपारण, 1917-18, पटना, 1969, पृ. 308-309)
–शिवकुमार (लेखक : यूपी राज्य अभिलेखागार, लखनऊ में कार्यरत हैं।)