हिन्दी के दधीचि थे आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय

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हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान और अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी, अरबी तथा प्राकृत भाषाओं के ज्ञाता आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के नसीरुद्दीनपुर (वर्तमान चन्द्रबलीपुर) नामक गाँव में 24 अप्रैल, 1904 ई. में हुआ था।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शिष्यों में इनका मूर्धन्य स्थान था। गुरुवर्य का प्रगाढ़ स्नेह इन्हें प्राप्त था। अपने पिता का यही नाम होने के कारण आचार्य शुक्ल इन्हें ‘शाह साहब’ कहा करते थे। ऐसे योग्य शिष्य की प्राप्ति का शुक्ल जी को गर्व था। ​विश्वविद्यालय की परिधि से बाहर रहकर हिन्दी में शोध कार्य करने वालों में इनका प्रमुख स्थान है। उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर हिन्दी की सेवा की थी। अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा के लिए कभी चेष्टा नहीं की थी। आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय द्वारा रचित छोटे-बड़े कुल ग्रन्थों की संख्या लगभग 34 है। जिनमें से तीन अंग्रेज़ी में रचित हैं। कालिदास, केशवदास, तुलसीदास, राष्ट्रभाषा पर विचार, हिंदी कवि चर्चा, शूद्रक और हिंदी गद्य का निर्माण इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। ‘केशवदास’ और ‘कालिदास’ नामक इनकी कृतियों पर इन्हें क्रमश: राजकीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे। ‘तसव्वुफ अथवा सूफीमत’ उनकी प्रसिद्ध रचना है। राष्ट्रभाषा के संग्राम में 1932 से लेकर 1949 तक हिन्दी-अंग्रेजी और उर्दू में लगभग दो दर्जन पैम्पलेटों की रचना की।

प्रकांड भाषाशास्त्री डॉ॰ सुनीतिकुमार चटर्जी ने कहा था ‘आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय जी के एक एक पैंफ्लेट भी डॉक्टरेट के लिए पर्याप्त हैं।’

आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय ने अपने समय के हिन्दी-उर्दू विवाद पर तर्कसम्मत ढंग से अपने लेखों और आलेखों में निरन्तर लिखा। उनके प्रमुख लेख हैं: “उर्दू का रहस्य”, “उर्दू की जुबान”, “उर्दू की हकीकत क्या है”, “एकता”, “कचहरी की भाषा और लिपि”, “कालिदास”, “कुरआन में हिन्दी”, “केशवदास”, “तसव्वुफ अथवा सूफी मत”, “तुलसी की जीवनभूमि”, “नागरी का अभिशाप”, “नागरी ही क्यों”, “प्रच्छालन या प्रवंचना”, “बिहार में हिन्दुस्तानी”, “भाषा का प्रश्न”, “मुगल बादशाहों की हिन्दी”, “मौलाना अबुल कलाम की हिन्दुस्तानी”, “राष्ट्रभाषा पर विचार-विमर्श”, “शासन में नागरी”, “शूद्रक साहित्य संदीपनी”, “हिन्दी के हितैषी क्या करें”, “हिन्दी की हिमायत क्यों”, “हिन्दी-गद्य का निर्माण”, “हिन्दुस्तानी से सावधान” इत्यादि।
काशी की प्रसिद्ध विद्या-विभूति आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय यद्यपि विश्वविद्यालय सेवा से नहीं जुड़े थे, पर विश्वविद्यालय परिसर में ही अपने मित्र मौलवी महेश प्रसाद के साथ रहते थे। बाद में वे डॉ. ज्ञानवती त्रिवेदी के बँगले पर आ गये थे। पं. शान्तिप्रियजी और आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय आज़मगढ़ के विद्या रत्न थे और आजमगढ़ के राहुल सांकृत्यायन को अपने जनपद के आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय, पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र और पं. शांतिप्रिय द्विवेदी की विद्या-साधना का सहज गर्व था। अपनी जीवन यात्रा में राहुल सांकृत्यायन जी ने अपनी भावना प्रकट की है। हैदराबाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय थे।
हिन्दी के इस अप्रीतम योद्धा ने हिन्दी-विरोधियों से उस समय लोहा लिया, जब हिन्दी का संघर्ष उर्दू और हिंदुस्तानी से था। भाषा का प्रश्न राष्ट्रभाषा का प्रश्न था। भाषा विवाद ने इस प्रश्न को जटिल बनाकर उलझा दिया था। उर्दू भक्त हिन्दी को ‘हिंदुई’ बताकर ‘उर्दू’ को हिंदुस्तानी बताकर देश में उर्दू का जाल फैला रहे थे। उर्दू समर्थकों की हिन्दी-विरोधी नीतियों ने ऐसा वातावरण बुन दिया था, जिसमें अन्य भाषा-भाषी हिंदी को सशंकित दृष्टि से देखने लगे। स्वयं आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय के शब्दों में उर्दू के बोलबाले का स्वरूप यों था- ‘उर्दू का इतिहास मुँह खोलकर कहता है, हिन्दी को उर्दू आती ही नहीं और उर्दू के लोग, उनकी कुछ न पूछिये। उर्दू के विषय में उन्होंने ऐसा जाल फैला रखा है कि बेचारी उर्दू को भी उसका पता नहीं। घर की बोली से लेकर राष्ट्र बोली तक जहाँ देखिये वहाँ उर्दू का नाम लिया जाता है।… उर्दू का कुछ भेद खुला तो हिंदुस्तानी सामने आयी।’ भाषा विवाद के चलते हिंदी पर बराबर प्रहार हो रहे थे। हिन्दी के विकास में उर्दू के हिमायतियों द्वारा तरह-तरह के अवरोध खड़े किये जा रहे थे, तब हिन्दी की राह में पड़ने वाले अवरोधों को काटकर हिन्दी की उन्नति और हिन्दी के विकास का मार्ग प्रशस्त किया आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय ने। उनके प्रखर विचारों ने भाषा संबंधी उलझनों को दूर कर हिंदी क्षेत्र को नई स्फूर्ति दी। उनके गम्भीर चिंतन, प्रखर आलोचकीय दृष्टि और आचार्यत्व ने हिन्दी और हिन्दी साहित्य को अपने ही ढंग से समृद्ध किया।
ये उर्दू, फारसी और अरबी के विद्वान् थे। अंग्रेजी, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के भी ये अच्छे पंडित थे। इनके स्वभाव में सरलता और अक्खड़पन का अद्भुत मेल था। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके निसर्गसिद्ध गुण थे। इन्होंने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की। हिन्दी भाषा और साहित्य के संरक्षण, संवर्धन और उन्नयन में अपने जीवन की आहुति देनेवाले हिन्दी के मूर्धन्य साहित्य सेनानी आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय का देहावसान काशीस्थ रामकृष्ण सेवाश्रम में 24 जनवरी, 1958 ई. में हो गया था।

-एम. सांकृत्यायन

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