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चुनाव प्रचार के दौरान जैसी सामुदायिक शत्रुता इस डिजिटल प्रचार से हुई, वैसी पहले कभी नहीं हुई। समाज के बीच भी परस्पर वैमनस्य फैला। क्या इसके बाद परस्पर विरोधी प्रचार में जुटे लोग आमने-सामने बैठ पाएँगे?
डिजिटल प्रचार, डिजिटल रैलियाँ और सोशल मीडिया के फ़र्ज़ी योद्धा जिस तरह से लोगों को भड़का रहे हैं, उसका असर चुनाव के बाद दिखेगा। धार्मिक आधार पर देश के दोनों मुख्य समुदायों- हिंदू, मुस्लिम को एक-दूसरे से इतना दूर कर दिया गया है कि अब शायद ही चुनाव के बाद भी उनके रिश्ते पहले जैसे बन पाएँ। ज़्यादातर पेशेवर जातियाँ, कारीगर मुस्लिम हैं। हिंदुओं को अपनी पूजा के लिए मूर्तियाँ बनवाने के लिए, देवी-देवताओं को सजाने हेतु उनके वस्त्र बनवाने के लिए अमूमन मुस्लिम कारीगर के पास जाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त लकड़ी के काम से लेकर हर तरह की नक़्क़ाशी का काम मुसलमान करते हैं। शहरों में नाई भी मुस्लिम हैं। एक तरह से हिंदुओं की रोज़मर्रा की ज़रूरत मुसलमान पूरी करते हैं और मुसलमानों को अपना व्यवसाय बचाये रखने के लिए हिंदुओं की ज़रूरत है। क्योंकि हिंदू उनका क्लाइंट भी है। लेकिन आज डिजिटल प्रचार के ज़रिए दोनों को एक-दूसरे का घनघोर विरोधी बना दिया गया है। शत्रुता के बाद रिश्ते क्या एक-दूसरे के पूरक हो पाएँगे?
आज़ाद भारत के चुनावों में पहली बार ऐसा प्रचार-युद्ध हो रहा है, जब पक्ष हो या विपक्ष कोई भी अपने प्रतिद्वंदी पर हमला करते वक़्त युद्ध के दौरान बरती जाने वाली नैतिकता का ख़्याल नहीं रख रहा। पहले भी चुनाव के दौरान एक-दूसरे की पोल खोली जाती थी, वैचारिक हमले भी होते थे लेकिन समाज के अंदर की समरसता को नष्ट करने की चेष्टा कभी नहीं की गई। शायद इसलिए भी कि तब प्रतिद्वंदी सामने होता था और लोक-लाज व लिहाज़ की चेतना भी हर एक में रहती थी। लेकिन जब राजनीतिक विरोधी सामने न हो और उसके विरुद्ध प्रचार आवश्यक हो तब कैसा लिहाज़ और कैसा संकोच! यही हुआ इस बार चुनाव-प्रचार में। हर पार्टी ने चुनाव प्रचार के लिए डिजिटल माध्यम का सहारा लिया। अर्थात् उस दृश्य व श्रव्य माध्यम का जिसमें दर्शक और श्रोता सामने नहीं है न शत्रु से आँख मिल जाने का भय है। इसमें जितना हो सके उतना प्रतिद्वंदी पर हमला कर लो। इसके साथ ही डिजिटल माध्यम में कोई संपादक नहीं होता इसलिए जो कुछ भी बोला जाता है, उस पर विचार करने वाला और उसे संपादित करने वाला कोई सक्षम और ज़िम्मेदार व्यक्ति भी बीच में नहीं होता। नतीजा यह हुआ कि चुनाव प्रचार के दौरान जैसी सामुदायिक शत्रुता इस डिजिटल प्रचार से हुई, वैसी पहले कभी नहीं हुई। समाज के बीच भी परस्पर वैमनस्य फैला। क्या इसके बाद परस्पर विरोधी प्रचार में जुटे लोग आमने-सामने बैठ पाएँगे?
हमारे पौराणिक आख्यानों में महाभारत में राजनीति की व्यावहारिक व्याख्या है। उसमें हर शंका का समाधान भी है। जब कुरुक्षेत्र का समर सज गया और कौरव तथा पांडवों की सेनाएँ युद्ध को आतुर थीं, तब अर्जुन अपने सामने युद्ध को तत्पर अपने ही बंधु-बांधवों को देख कर विह्वल हो उठते हैं। पितामह भीष्म, ग़ुरु द्रोण तो समक्ष थे ही चचेरे भाई सुयोधन, युयुत्स आदि भी थे। कोई बड़ा कोई छोटा। लेकिन सबके साथ वे खेले थे, हिले-मिले थे। उनको लगा इनसे लड़ने के लिए शत्रु भाव कहाँ से लाऊँ। और वे शस्त्र रख कर युद्ध भूमि में बैठ जाते हैं। तब कृष्ण उन्हें समझाते हैं। न्याय और अन्याय तथा पाप और पुण्य के अंतर को बताते हैं। वे अर्जुन को समझाते हैं कि युद्ध क्यों आवश्यक है। तब अर्जुन युद्ध के लिए तत्पर होते हैं। ऐसे भी कई अवसर आते हैं, जब अर्जुन पितामह भीष्म अथवा द्रोण के समक्ष अपनी भावनाओं में बहने लगते हैं, उस समय भी कृष्ण उनके अंदर ‘किलिंग स्टिंक्ट’ पैदा करते हैं। लेकिन यह ‘किलिंग स्टिंक्ट’ का उद्देश्य शत्रु के समक्ष शत्रुता का भाव उत्पन्न करना था, नैतिकता एवं लोक-लाज की अनदेखी करना नहीं। पर आज क्या हो रहा है? डिजिटल मीडिया के ज़रिए लोगों के बीच परस्पर सौहार्द को नष्ट करने की कोशिश हो रही है। आज तो ‘किलिंग स्टिंक्ट’ के लिए एक ऐसा ज़हर घोला जा रहा है, जो योद्धाओं के बीच भले दोस्ताना हो किंतु उनके समर्थकों के बीच ऐसी खाई पैदा कर गया है, जिसे भरा जाना मुश्किल है।
एक बात और है, चूँकि डिजिटल मीडिया में अधिकतर वे लोग हैं जो बेरोज़गार हैं या रोज़गार की तलाश में हैं। हताशा के इस माहौल में वे अपना ग़ुस्सा निकालने को आतुर हैं। अब उनको ग़ुस्सा निकालने के लिए कोई शत्रु सामने तो दिखता नहीं इसलिए वे सोशल मीडिया के इस डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर अपना ग़ुस्सा निकालते हैं। और सारी भड़ास वे यहीं उड़ेलते हैं। और सिर्फ़ युवा ही नहीं बल्कि उम्रदराज भी। यूँ भी जब से फेसबुक और ट्वीटर की शुरुआत हुई है, तब से चुनाव के समय इसका इस्तेमाल भी हुआ है। किंतु इस बार उसका चरम रूप सामने आया है। इसके पहले 2019 का एक अत्यंत दिलचस्प वाक़या मुझे याद है। फ़रवरी की एक शाम दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में एक पूर्व केंद्रीय मंत्री की पोती की शादी थी। उसमें कई राजनीतिक दलों के राजनेता जुटे थे। उस समय एक वरिष्ठ पत्रकार ने शर्त लगाई कि यदि बीजेपी जीत गई तो वे अपनी मूँछ मुड़वा देंगे। संयोग यह कि तीन महीने बाद लोकसभा में बीजेपी बम्पर जीत के साथ आई। मैंने उनको उनकी शर्त की याद दिलाई, तो बोले चुनाव के पहले की शर्त चुनावी वायदे जैसी होती है। लेकिन वे तो इसे भूल गए पर क्या ये जो युवा ऐसी भावनाओं में बहे हैं, वे क्या चुनाव बाद अपनी शत्रुता ख़त्म कर देते हैं? शायद नहीं और वह शत्रुता आगे भी उनके दिमाग़ में पोषित होती रहती है।
ताज़ा प्रकरण है हिज़ाब का। इस हिज़ाब विवाद को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के मद्दे नज़र इतना चर्चा में ला दिया गया है कि हर राजनेता, टीवी चैनल, यू ट्यूब से लेकर फेसबुक और ट्वीटर में बस हिज़ाब ही छाया है। ऐसा लग रहा है मानों मुसलमानों के लिए हिज़ाब नहीं तो कोई काम नहीं उधर कट्टरपंथी हिंदू तत्त्वों के लिए अब मुस्लिम महिलाओं को हिज़ाब व नक़ाब से आज़ादी दिला कर ही मानेंगे। इन तत्त्वों का तो कुछ नहीं बिगड़ रहा है, किंतु हिंदू-मुस्लिम आपस में एक-दूसरे के प्रति शत्रु-भाव तो पाल ही बैठे हैं। मज़े की बात कि जिनको यह भी नहीं पता कि हिज़ाब, नक़ाब और बुर्का में फ़र्क़ क्या है, वे भी इस विवाद में कूद पड़े हैं और अपने फ़िज़ूल के बयानों से इसे सुलगा रहे हैं। मुसलमान कह रहे हैं कि हिज़ाब उनके धर्म में अनिवार्य है जबकि हिंदू समान नागरिक संहिता की आड़ लेकर हिज़ाब को ख़त्म करने की बात कर रहे हैं। इस विवाद को हवा पोलेटिकल पार्टी भी दे रही हैं। जबकि यह एक सामाजिक मसाला है। पर चूँकि सामाजिक मसलों से ही ध्रुवीकरण होता है इसलिए वे भी इसमें हाथ सेक रही हैं। एक तरफ़ कांग्रेस समेत तमाम सोशल डेमोक्रेट के हामी राजनीतिक दल हिज़ाब के फ़ेवर में खड़े हो गए हैं तो बीजेपी समेत दक्षिणपंथी पार्टियाँ हिज़ाब के विरोध में। नतीजा यह हुआ है, हिज़ाब शब्द ही हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई को और चौड़ा कर रहा है। और यह सारा युद्ध आमने-सामने नहीं बल्कि डिजिटल मध्यम से हो रहा है।
यही नफ़रत सामाजिक रिश्तों को बिगाड़ती है। चुनाव के समय इसको हवा देने वाले राजनेता इस पर अंकुश लगाने का भी कोई प्रयत्न नहीं करते। क्योंकि यह उनके लिए हथियार भी होता है। पर लोगों को सोशल मीडिया पर भड़का कर अपना हित साध लेना एक ऐसा हथियार है, जो दोधारी है। भले वह आज आपके लिए उपयोगी हो लेकिन आगे चल कर वह आपके लिए कष्टकारी होगी। इसलिए सरकार को सोचना होगा, कि कैसे भविष्य में प्रचार को यूँ डिजिटल न बनने दे और अगर किसी वज़ह से बनाना भी पड़े तो कोई ऐसी नियामक संस्था हो, जो सोशल मीडिया पर लगाम लगाए। प्रिंट सदैव एक दस्तावेज होता है। उसमें प्रकाशित किसी भी सामग्री को डिलीट नहीं कर सकते। इसलिए वह वर्षों तक बना रहता है। लेकिन टीवी मीडिया कोई भी सूचना एयर करने के बाद भूल जाता है। और डिजिटल मीडिया तो ब्लिंक करता है, उसमें स्थायित्त्व कहाँ! ऐसे में कोई नियामक संस्था ही उस आने वाली सामग्री को लगाम लगा सकती है। ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समाज को विखंडित न किया जा सके।
-शंभूनाथ शुक्ल
(लेखक : हिन्दी दैनिक हिन्ट व निवाण टाइम्स के प्रधान सम्पादक हैं।)