महात्मा गाँधी और हिन्दूत्व

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महात्मा गाँधी अपने-आपको अद्वैत वेदान्त के एक सच्चे अनुयायी के रूप में देखते थे। स्वामी विवेकानन्द ने अद्वैत वेदान्त को एक समावेशी विश्व धर्म के रूप में प्रस्तुत किया था। महात्मा गाँधी ने भी हिन्दू धर्म में अपनी दृढ़ आस्था को छिपाने का प्रयास नहीं किया, परन्तु इसे उन्हीं की तरह अन्य धर्मों का सम्मान करने और उन्हें गले से लगाने वाले धर्म के रूप में प्रस्तुत किया। वे हिन्दू मान्यताओं और प्रथाओं से बहुत गहराई से जुड़े हुए थे और आदि शंकराचार्य के नियमों का दृढ़ता से पालन करते थे। अहिंसा और सत्य के सिद्धान्तों को तो उन्होंने राष्ट्रीय संघर्ष का माध्यम ही बना लिया। परन्तु गाँधीजी की प्रार्थना सभाओं में हिन्दू भजनों के साथ-साथ अन्य धर्मों की श्रद्धेय वाणियों और आयतों इत्यादि को भी शामिल किया जाता था। उन्होंने सभी धर्मों की समन्वयता पर जोर देते हुए ” रघुपति राघव राजा राम ईश्वर अल्लाह तेरो नाम ” जैसी पंक्तियों को प्रोत्साहित किया। यह सब वेदों की इस अवधारणा पर आधारित था कि ईश्वर और सभी मनुष्यों में एकात्मक जुड़ाव था। सभी मनुष्यों में एक ही आत्मा वास करती थी इसलिए सभी मनुष्य समान थे। उनका यह विश्वास था कि ईश्वर से जुड़ने के सभी रास्ते समान रूप से वैध थे और एक जैसे सम्मान के पात्र थे, उस समय एक कड़ी परीक्षा पर खरा साबित हुआ जब उन्होंने गो-हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने का मामला उठाने से इनकार कर दिया, क्योंकि इससे अन्य धार्मिक समुदाय प्रभावित होते थे।
उनका यह व्यवहार हर हिन्दू के गले नहीं उतर पाता था। उनकी हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे ने अदालत में अपना बचाव करते हुए उन पर हिन्दुओं के साथ विश्वासघात करने का आरोप लगाया था। यह अपने-आप में एक अटपटा आरोप था, क्योंकि बहुत से लोग गाँधीजी को भारतीय राजनीति में एक निर्विवाद हिन्दू नेता के रूप में देखते थे। यह सच है कि उनका हिन्दूवाद परम्परागत धार्मिक आचरण से अलग था, परन्तु मरते समय उनके होंठों पर राम का ही नाम था। फिर भी ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि उनका अपना कोई इष्टदेव था, जिसे वे विशेष रूप से मानते और पूजते थे। (उन्होंने एक सर्वोच्च शक्ति में विश्वास प्रकट करते हुए लिखा था-‘एक ऐसी अवर्णनीय शक्ति है जो हर चीज़ को नियन्त्रित करती है…. मैं ईश्वर को एक व्यक्ति के रूप में नहीं देखता।) गाँधीजी ने अपने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा था कि जो कुछ भी हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में था, वही उनका धर्म था। परन्तु, जैसाकि विद्वान लेखक के.पी. शंकरन ने लिखा है, “उन्होंने तुरन्त ही इसमें सुधार करते हुए आगे जोड़ा था कि वे इसी तरह अन्य धर्मों के श्रद्धेय ग्रन्थों में भी विश्वास रखते थे।”
उन्होंने हिन्दू धर्म में अन्तर्निहित चयनशीलता और इसके ग्रन्थों और मान्यताओं की विविधता को ध्यान में रखते हुए यह भी स्पष्ट कर दिया था कि उन्हें इन धर्म-ग्रन्थों में मौजूद सिद्धान्तों को चुनने, उनकी अपनी दृष्टि से व्याख्या करने, और किसी सिद्धान्त से अहसमत होने पर उसे
ठुकराने का पूरा अधिकार था। सत्य और अहिंसा को हिन्दूवाद के लगभग अन्य सभी सिद्धान्तों से ऊपर रखते हुए उन्होंने इन्हें अपना जीवन मन्त्र बना लिया। जैसाकि वे कहा करते थे, “मेरे लिए सत्य ही ईश्वर है।” गाँधीजी हिन्दूवाद के सुधारक न होकर इसके व्याख्याकार थे। उन्होंने अपने विचारों और उद्देश्यों से मेल खाने वाले धर्म सिद्धान्तों की नये सिरे से व्याख्या की और इन पर दृढ़ता से टिके रहे। उन्होंने अपने समकालीन अम्बेडकर की तरह हिन्दू धर्म को दोष न देकर सिर्फ इसकी घृणित प्रथाओं को कोसा और उन्हें मिटाने का प्रयास किया। भीमराव अम्बेडकर हिन्दूवाद की विकृतियों और क्रूरताओं पर कड़े प्रहार करने के बाद अन्ततः बौद्ध धर्म की शरण में चले गये, परन्तु गाँधीजी ने भीतर से ही इन विकृतियों के ख़िलाफ़ लड़ने का प्रयास किया। प्रो. शंकरन के अनुसार, गाँधीजी यूरोपीय मुक्ति और आधुनिकता की शब्दावली और परिभाषा को पचा नहीं पा रहे थे (जिसके कारण उन्होंने 1909 की अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में बताये हैं), इसलिए वे हिन्दू धर्म की जानी-पहचानी शब्दावली की शरण में जाने के लिए बाध्य हो गये, जो उनके माता-पिता की वैष्णव परम्पराओं पर आधारित थी। गाँधीजी अद्वैत दर्शन के ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ के सिद्धान्तों पर आधारित ‘एक नैतिक भारतीय राज्य की स्थापना का सपना देख रहे थे। स्वाधीन भारत का राष्ट्रीय मन्त्र ‘सत्यमेव जयते’ अर्थात् ‘सत्य की ही विजय होती है’ गाँधीजी की ही देन है, जिसे उन्होंने ‘मुण्डकोउपनिषद्’ से चुना था। ‘भगवद्गीता’ का उनका अपना अनुवाद अनासक्ति योग के दर्शन के रूप में अहिंसा पर ज़ोर देता है। गाँधीजी ने आमतौर से युद्ध और कर्म से जोड़े जाने वाली ‘गीता’ को अहिंसा और सत्य की सन्देशवाहिका बना दिया। यह अपने-आपमें एक चमत्कार था (जिसे कुछ लोगों ने पाठ का रचनात्मक परन्तु ‘गलत अध्ययन’ भी कहा है)। जहाँ उनका हिन्दूवाद अहिंसा और सत्य का मंच बन गया, वहीं हिन्दू जनता की धार्मिक आस्था उनकी राजनीतिक रणनीति का आधार बन गयी।
यह सब करते हुए भी गाँधीजी ने अन्य धर्मों के भारतीयों को भी अपने उदार और समावेशी हिन्दूवाद से जोड़ने का ध्यान रखा। उनका मानना था कि आस्तिक और नास्तिक दोनों तरह की धार्मिक परम्पराओं में पर्याप्त मात्रा में ऐसा साहित्य उपलब्ध था जो धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को लेकर एक बहुलवादी दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करता हो। उन्हें अपने अद्वैतवादी विचारों के लिए वेदान्त के साथ-साथ जैन धर्म की ‘अनेकान्तवाद’ की अवधारणा से भी मदद मिली। इस अवधारणा के अनुसार, सत्य और यथार्थ को अलग-अलग लोग अलग-अलग दृष्टि से देखते हैं, इसलिए सत्य का कोई भी रूप ‘सम्पूर्ण सत्य’ नहीं हो सकता। गाँधीजी ने इसी आधार पर ‘सत्य की बहुपक्षता और सापेक्षता पर जोर दिया। वे अक्सर कहा करते थे कि समन्वयता की भावना भारतीय सभ्यता का एक विशिष्ट और अभिन्न अंग है। एक बार एक हिन्दू के रूप में परिभाषित किये जाने पर उन्होंने घोषणा की थी-“मैं हिन्दू हूँ, मुसलमान हूँ, ईसाई हूँ पारसी हूँ, यहूदी हूँ।” (इस पर मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना ने कटाक्ष करते हुए कहा था-“सिर्फ एक हिन्दू ही इस तरह की बात कह सकता है!”)
एक हिन्दू के रूप में मैं बड़े गर्व के साथ विचार और कर्म की उस परम्परा का वारिस होने का दावा करता हूँ जो वेदों से शुरू हुई, आदि शंकराचार्य के हाथों विकसित हुई, भक्ति काल के दौरान फली-फूली, राजा राममोहन राय और श्री नारायण गुरु जैसे सुधारकों के स्पर्श से कुछ और निखरी, और स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गाँधी जैसे दो महान प्रकाश-स्तम्भों के माध्यम से विश्व मंच पर प्रतिष्ठित हुई। (श्रोत- मै हिन्दू क्यों हूँ।- शशि थरूर)

-शिवकुमार

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