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विदग्ध-विद्वान और क्रांतदर्शी कवि प्रो.डाॅ.आनंद सिंह की महाकविता ‘अथर्वा : मैं वही वन हूँ’ का 28 नवंबर के सायंकाल में इंडिया इंटरनेशनल सैंटर, दिल्ली में विमोचन हुआ। इसे दिल्ली के नयी किताब प्रकाशन ने महाकाव्याकार प्रकाशित किया है। इस अवसर पर आनंदजी और कार्यक्रम के अध्यक्ष ख्यातनाम आलोचक-कवि श्री अशोक बाजपेयी से भेंट हुई।
डाॅ.आनंद सिंह की यह कविता ‘अथर्वा’ एक विलक्षण महाकाव्याकार उद्गान है जो सत्य,सृष्टिरहस्य,चेतना के विविधवर्णी क्रमचयों और संचयों, प्रकृति और जीवन के निगूढ़ रहस्यों और विलक्षणताओं, ऐतिहासिक व कालिक परिप्रेक्ष्यों के सापेक्ष चेतना के उद्विकास तथा भवितव्य और नृ-जीवन के गहन मानसिक तथा अतिमानसिक पक्षों का अद्भुत अंतदृष्टि से दर्शन-विवेचन करती है ! मैंने यद्यपि अभी इसे पूरा नहीं पढ़ा है,बस जैसे एक अर्धोन्मीलित दृष्टि से इस गहनसागरीय जल का आचमनमात्र किया तो भी अपने जाने कह सकता हूँ कि ऐसी कृति, ऐसी चीज़ बीते कई वर्षों से लेखकीय और पाठकीय लोक में नहीं आई है, यह लोकोत्तर सी कृति है ! पाँच सौ से अधिक पृष्ठों में उद्गायित इस अद्भुत रचना को हर साहित्यप्रेमी को अवश्य देखना चाहिए, यह एक नया ही अनुभव है, नयी ही कविता है !
श्री अशोक बाजपेयी ने सरल शब्दों में आनंदजी की इस कृति को ‘कविता में हमारी जातीय स्मृति को जगाते हुए उदार, उदात्त और उज्ज्वल का पुनर्वास’ कहा, जिससे मैं सहमत हूँ। मेरी दृष्टि में यह महाकविता जैसे केंद्रस्थ एक महासत्य का 360 अंशी बहुवर्णी निरूपण है जिसे पाठक या आलोचक परिधि के जिस बिंदु से देखेगा, वहीं से, उसी त्रिज्याविशिष्ट से, इस सत्य की तद्वर्णी व्याख्या संभवपर है। इस तरह, ‘अथर्वा’ सहस्त्रशः व्याख्येय होते हुए भी एक अव्याख्येय, अबूझ सा अद्भुत आनंद पाठक को देती चलती है। आनंदजी की भाषा एक अलग ही स्तर की है,वे जैसे वागर्थ की मध्यमा-परा-पश्यंती में सतत विचरण करते हुए अंततः वैखरी में उसकी अभिव्यक्ति करते हैं। भाषाविज्ञान के विद्यार्थी के लिए यह महाकाव्य अनेक तत्सम-तद्भव शब्दों के प्रांजल उपयोग सहित भाषा के नवशब्दसृजन और नवशैलीनिरूपण का एक विलक्षण शब्दकोश ही है ! इस पर साहित्य और कविता से लगाव रखने वाले हर ख़ासो-आम को अवश्य ही दृष्टिपात करना चाहिए, इससे अधिक और कुछ कहना मेरे लिए तो अनधिकार चेष्टा है !
– विकास नेमा (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)