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पहले बॉम्बे लोकल ट्रेन में ऐसे ही टिकट चलते थे। ये अट्ठारह बरस पुराना टिकट है। हमने कभी इस टिकट पर यात्रा की होगी,पुरानी फ़ाइल में मिला। हम बॉम्बे जाने पर लोकल ट्रेन में ज़रूर यात्रा करते। अब भी करते हैं,लोकल ट्रेन में ही असली बॉम्बे दिखता है। अब तो लोकल ट्रेन में काग़ज़ पर कम्प्यूटराईज़ टिकट मिलते हैं। एक दौर में इंडियन रेलवे में पूरे देश में दफ़्ती वाले मैनुअल टिकट चला करते थे। वो भी देखने में इसी बॉम्बे लोकल ट्रेन टिकट जैसे होते लेकिन पीले रंग के होते और दफ़्ती ज़रा सख़्त होती। उस टिकट पर हमने ख़ूब यात्राएं की हैं। हम लोग उस दौर के हैं जो नए और पुराने दौर के बीच की पीढ़ी है।हम लोगों ने नया और पुराना दौर दोनों देखा है,दोनों का आनंद लिया है।
बहरहाल, लोकल ट्रेन के तमाम सफ़र में से दो सफ़र की यादें मेरे ज़ेहन में आज भी अंकित हैं। दशकों पहले जब हम बॉम्बे गए और लोकल ट्रेन में अपने मित्रों संग चढ़े तो टीटी आया। टीटी ने बंबईया लहजे में हमसे कह दिया कि ‘टिकट बताओ’। हमें बदतमीज़ी और तुम-तड़ाम सुनने की आदत ना तब थी ना अब है। हम बहुत सुसंस्कृत हिंदी-उर्दू पट्टी से आते हैं जहाँ भाषा की तमीज़ का बहुत ध्यान रखा जाता है। आप-जनाब और तुम-तू का इस्तेमाल किसके साथ किया जाए ये मालूम रहता है। आज भी किसी ने लखनऊ में हमें तुम से मुख़ातिब कर दिया तो हम कह देते हैं कि सारी पंजाबियत तुम्हारी ‘जेब’ में डाल देंगे,ये पंजाब नहीं यूपी है, तहज़ीब का शहर लखनऊ है बघर्रे। हमारे आज़मगढ़ में आप जनाब और तुम शब्द का व्यवहार किसके साथ किया जाना है ये तय रहता है। हम सबके साथ तमीज़ से बातें करते हैं,तमीज़ चाहते हैं,तमीज़ ना जानने वाले को तमीज़ ज़रूर सिखाते हैं,चाहे फिर वो कोई भी हो, मेरा कितना भी नुकसान चाहे क्यों ना हो जाए। हमें बदतमीज़ी बर्ताश्त नहीं है। हाँ,अनपढ़ देहातियों के तुम-तड़ाम का हम बुरा नहीं मानते।इसी तरह पढ़ाई के दौरान दिल्ली में भी हमने बहुतों को सबक सिखाया कि तुम-तड़ाम दिल्लीवालों की भाषा नहीं है। ये दिल्ली में आए बाहरियों की भाषा है। तुम किस देहात से दिल्ली आए हो। ये पंजाब नहीं है,क़दीम फ़सील शहर दिल्ली की नफ़ीस ज़बान ख़राब ना करो। ख़ैर,बॉम्बे लोकल ट्रेन में टीटी ने जैसे ही ‘टिकट बताओ’ हमसे कहा,मेरी भवें तन गईं। अब मेरे बगल में बैठे मित्र सिंह साहब ने छूटते ही टीटी को मारा एक थप्पड़। दूसरा मारते कि तब तक हमने रोक लिया। अब पूरे लोकल ट्रेन के डिब्बे में ख़ामोशी छा गई। टीटी हतप्रभ रह गया। सिंह साहब ने आगे कहा कि पहने हो कोट, लगाए हो टाई, टिकट बताओ का क्या मतलब, बोलने की तमीज़ नहीं है, भाषा का ज्ञान नहीं है, हम लोग यहाँ तुम्हारे बाप के नौकर बैठे हैं कि तुम तड़ाम करोगे, टिकट बताओ का क्या मतलब, टिकट बताया जाता है कि दिखाया जाता है, कहो कि ‘टिकट दिखाइये’। सिंह साहब ने तो टीटी को न्योत कर धर दिया था, यहाँ वो सब शब्द लिखना मुनासिब नहीं। अब टीटी ने अपना गाल सहलाते हुए कहा कि ‘साहब टिकट दिखाइये’। अब हमने टिकट दिखा दिया।इसी तरह एक बार हम हवाई जहाज़ से बॉम्बे पहुंचे। मित्र सिंह साहब रिसीव करने आए। वीटी से लोकल ट्रेन में हम लोग चढ़े। उस ज़माने में एटीएम का इतना चलन नहीं था, बैंक से निकाल कैश रखने का ख़ूब चलन था, मेरे बैग में लिहाज़ा ख़ूब कैश था। ट्रेन चली तो मराठियों का गोल भी उसमें था। क़रीब एक दर्जन मराठी लोग ट्रेन में घेरा बनाकर और बैठकर ताश खेलने लगे।उनकी बातों से हमें पता चला कि बाल ठाकरे के लोग हैं। फिर उन लोगों ने बातों ही बातों में यूपी-बिहार वालों को बेवजह गाली बकनी शुरू कर दी। अब हम क्या बोलते,कोई कुछ नहीं बोल रहा था। तभी सिंह साहब उठे। उन आदमियों के पास पहुंचे जो गाली बक रहे था, वहाँ एक पैंतीस-चालीस बरस का हट्टा-कट्टा मराठी था,वही गैंग लीडर लग रहा था। सिंह साहब ने उसे तानकर मारा एक थप्पड़। अब हमने सोचा कि हुआ बवाल, अब तो मेरा कैश भी लुट जाएगा। लेकिन जैसे ही मराठी को थप्पड़ पड़ा, डिब्बे में शांति छा गई। दर्जन भर मराठियों के गैंग ने अपनी नज़रें ताश के पत्तों में कर लीं, फिर ना सिंह साहब कुछ बोले, ना मराठी कुछ बोले। बाद में हमने सिंह साहब से कहा कि कहीं मराठी हमला कर देते तब क्या होता। उन्होंने कहा कि ये मराठी हैं, बस ज़बान के तेज़ होते हैं, मुँह के बली और मुँह के गुंडा हैं, इनकी इतनी हैसियत नहीं कि यूपी-बिहार वालों से टकरा जाएं, इनका इलाज यही है कि जब यूपी बिहार वालों को गरियाएं, एक थप्पड़ मारो, ये एकदम शरीफ़ बनकर बैठ जाएंगे, चाहे पचासों क्यों ना हों।
-डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान